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चरणानुयोग
प्राकार आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध
सूत्र ५२४-८२७
१२. "गिलासिणी गिलासिपी" ति वा,
(१२) भस्मकरोग वालों को भरमक रोगी, १३. वेवई वेवई ति बा,
(१३) कम्पनवात वाले को वाती, १४. पौह सप्पो पीट सप्पी ति वा,
(१४) पीठसी-पंगु को पीठसपों १५. सिलिवयं सिलिवए ति वा,
(१५) श्लीपदरोग वाले को हाथीपगा, १६. महुमेहणी महुमेहणी ति वा, हत्यच्छिपणं हत्थच्छिणे (१६ मधुमेह काले को मधुमेही, कहकर पुकारना, अथवा तिवा, एवं पावच्छिण्ण तिवा, कण्णच्छिणे ति वा, नक्क- जिमका हाच कटा है उसको हाथ कटा, पैर कटे को पैरकटा, च्छिण्णे ति वा, उच्छिपणे तिवा।"
नाक कटा हुआ हो तो नकटा, कान कट गया हो उसे कनकटा
और ओठ कटा हुआ हो उसे भोउकटा कहना ।। जे यावणे तहप्पगाराहि भासाहि तुझ्या बुहया कुष्पति ये और अन्य जितने भी प्रकार के हों, उन्हें इस प्रकार की भाणवा ते यावि तहप्पगारा तह पगाराहि मासाहि अभिकख (आघातजनक) भाषाओं से सम्बोधित करने पर वे व्यक्ति दुःखी णो भासेज्जा।
या कुपित हो जाते हैं। अत: ऐसा विचार करके उन लोगों को -आ. सु. २. अ ४, उ. २, सु. ५३३ (जसे वे हों उन्हें वैसी) भाषा से सम्बोधित न करे । तहेव काणं काणे ति, पंडगं पंडगे ति वो।
इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को वाहियं वा वि "रोगि" ति, तेणं 'चोरे" ति नो वए॥ रोगी और चोर को चोर न कहे। एएणऽन्येण मटुंण, परो जेगुबहम्मई ।
आचार (वचन-नियमन) सम्बन्धी भाव-दोष (चित्त के प्रदेश आयारभावादोसन्नु, न त भासेज पनवं ।।
या प्रमाद) को जानने वाला प्रज्ञावान् पुरुष पूर्व एलोकोक्त अथवा
- दस. अ. ७, गा. १२-१३ इसी कोटि की दूसरी भाषा, जो दूसरे को अधिय लगे, न बोले। बप्पाइस सावज्ज भासा णिसेहो
प्राकार आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध८२५. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जहा वेगतियाई रुवाई ८२५. साधु या खात्री यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, जैसे कि
पासेज्जा, तं जहा-पप्पाणि वा-जाव-गिहाणि वा तहा वि प्राकार-यावत्-भवन आदि, इनके विषय में ऐसा न कहें, ताई णो एवं वदेज्जा. तं जहा–सुको तिया, सुठुकरें जैसे कि-.-''यह अच्छा बना है. भली भांति तैयार किया गया है, तिवा, साहुकडे ति बा, कल्लागं तिवा, करणिज्जे ति सुन्दर बना है. यह कल्याणकारी है, यह करने योग्य है" इस
था।" एयप्पगारं भासं सावज्ज-जाव-भूतोवघातिय अभिकस प्रकार की सावध-यावत्-जीवोपधातक भाषा न बोलें। - पो भाग्मा । -आ. सु. २, अ. ४, उ. २. सु. ५३५ उपक्खडे असणाइए सावज्ज भासा णिसेहो-
उपस्कृत अशनादि के सम्बन्ध में सावध भाषा का
निषेध२६. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा असणं वा-जाव-साइमं वा ८२६. साधु या साध्वी अशन–यावत् स्वादिम आहार को
उबक्सडियं पेहाए तहा वि तं णो एवं वदेज्जा, ते जहा- देखकर इस प्रकार न कहे, जैसे कि-"यह आहारादि पदार्थ "सुकडे ति वा, सुठुकडे ति बा, साहकडे ति वा, कल्लाणे अच्छा बना है, या सुन्दर बना है. अच्छी तरह तैयार किया गया तिवा, करणिज्जे ति था।" एतप्पगारं भासं सावज्जं है, या कल्याणकारी है और अवश्य करने (खाने) योग्य है।" -जाव-भूतोवघातियं अभिकख णो भासेम्जा।
इस प्रकार की भाषा साधु या साध्वी सावन-यावत--जीवोप--अ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५३७ घातक भाषा जानकर न बोले। परिवड्ढकाइए माणुस्साइए सावज्ज भासा णिसेहो- पुष्ट शरीर वाले मनुष्य आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा
का निषेध८२७. से भिक्ख वा भिक्खूणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा ८२७. साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, सांड,
मिगं था पसु वा पक्खि वा सरीसि वा जलयरं वा सत्तं भैसे, मृग था पशु, पक्षी, सर्प या जलचर अथवा किसी प्राणी को
१ सुकडे त्ति सुपक्के ति, मुछिन्ने सुहढे मडे । सुनिट्ठिार सुलट्टे ति, सांवजं वज्जए मुणी ।।
-दस. अ. ७, गा. ४१