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परमामुयोग
श्रेष्ठ परीक को पाने में असफल चार पुरुष
सूत्र २७
बहवे पउमघर-पुणरीया बुध्या अणुपुरुषट्टिता-जाव-परिवा। सुन्दर रचना रो युक्त है, जल और पंक से ऊपर उठे हए,
यावत्-पूर्वोक्त गुणों गे सम्पन्न अत्यन्त रूपवान् एवं अद्वितीय
सुन्दर है। सवाति च पं तीसे पुबखरीए बहुमजादेसभागे एगे महं उस समग्र पुष्करिणी के ठीक बीच में एक महान् उत्तमएउमयरपोंडरीए चुइते अणुपुम्वहिते-जाव-पजिल्वे । पुण्डरीक (श्वेतकमल) बताया गया है, जो क्रमशः उभरा हुआ
- सूय. गु. २, अ. १, सु. ६३८ - यात्र-(पूर्वोक्त) सभी गुणों से सुशोभित बहुत मनोरम है। पोंडरीयपग्गहणे चरो वि असफला--
श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने में असफल चार पुरुषअह पुरिसे पुरस्थिमाती विसातो आगम्मतं पुक्खरणों तोसे अब कोई पुरुष पूर्वदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर पुषखरणीए तीरे ठिच्चा पासति सं महं एगं पळमबरपोंदरियं उस पुष्करिणी के तीर (किनारे) खड़ा होकर उस महान् उत्तम अणुपुष्वदितं ऊसिय-जाव-पडिहवं ।
एक पुण्डरीक को देखता है, जो क्रमशः (उतार चढ़ाव के कारण) सुन्दर रचना से युक्त तथा जल और कीचड़ से ऊपर उठा हुआ
एवं यावत्-(पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) बढ़ा ही मनोहर है। तए में से पुरिसे एवं वदासी
इसके पश्चात् उस श्वेतकमन्न को देखकर उस पुरुष ने (मन "अहमसि पुरिसे सेत्तणे कुसले पहिते वियत्ते मेधावी अबाले ही मन) इस प्रकार कहा -''मैं पुरुष हूं, खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ या मगत्ये मग्यविवू मम्गस्स गति-परक्कमप्यू
निपुण) हूँ, कुशल (हित में प्रवृत्ति एवं अहित से निवृत्ति करने में निपुण) हूँ, पण्डित (पाप से दूर, धर्मज्ञ या देशकालज), व्यक्त (बाल-भाव से निष्क्रान्त-वयस्क अथवा परिपक्वबुद्धि), मेघावी (बुद्धिमान्) तथा अवास (बालभाव से निवृत्त-युवक) हूँ। मैं मार्गस्थ (सज्जनों द्वारा आचरित मार्ग पर स्थित) हूँ, मार्ग का जाता हूँ, मार्ग की गति एवं पराक्रम का (जिस मार्ग से चलकर
और अपने अभीष्टदेश में पहुंचता है, उसका) विशेषज्ञ हूँ। अहमेय पउमबरवोंवरियं निखेस्मामि ति कट्ट इति मैं कमलों में थे इस पुण्डरीक कमल को (उखाड़कर) बाहर वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्तर्राण,
निकाल लूंगा। इस इच्छा से यहां आया हूँ।" .. यह कहकर भाष जावं च णं अभिकम्मे ताव सावं च महते उचए, पुरष उस पुष्करिणी में प्रवेश करता है। नह ज्यों-ज्यों पुष्करिणी महते सेए पहणे तीरं, अस्पते पउमवरपोररीयं णो हवाए में आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसमें अधिकाधिक गहरा पानी णो पाराए, अंतरा पोक्खरणोए सेसि विसरणं पहमे पुरि- और कीचड़ का उसे सामना करना पड़ता है। अतः वह व्यक्ति सजाए।
तौर से भी हट चुका है और श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के पास भी -सूव, सु. २, अ. १, सु. ६३६ नहीं पहुंच पाया । वह न इस पार का रहा, न उस पार का ।
अपितु उस पुष्करिणी के बीच में ही गहरे कीचड़ में फैसकर
अत्यन्त क्लेश पाता है । यह प्रथम पुरुष की कथा है । अहावरे वोच्चे पुरिसम्जाए।
अब दूसरे पुरुष का वृत्तान्त बताया जाता है। अह पुरिसे वक्षिणातो विसातो आगम्म तं पुनखरिणों तोसे (पहले पुरुष के कीचड़ में फंस जाने के बाद) दुसरा पुरुष पुक्खरिणीए तोरे ठिच्चा पासति
दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उस (पुष्करिणी)
के दक्षिण किनारे पर ठहरकर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक को देखता है, तं महं एग परमपरपोंडरीयं अणुपुष्यद्वित-जाव-परिवं, जो विशिष्ट क्रमबद्ध रचना से युक्त है, . यावत्-(पूर्वोक्त विशेतं च एष एमं पुरिसजातं पासति पहीणं तोर, अपतं पजम- षणों से युक्त) अत्यन्त सुन्दर है। वहाँ (खा-खड़ा) वह उस बरपोंडरीयं, जो हवाए जो पाराए, अंतरा पोषखरणोए (एक) पुरुष को देखता है. जो किनारे से बहुत दूर हट चुका है, सेयंसि विसरणं ।
और उस प्रधान श्वेतकमल तक पहुँच नहीं पाया है, जो न उधर का रहा है, न उधर का, बल्कि उस पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गया है।