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________________ नत्र २७८-२७६ एगंत विणयास्त समक्खा२७. सच्छ असचं इति वितयंतर, एकान्त-विनयवादी की समीक्षा असाहू साहू ति उदाहरंता ।। जैसे जया बेगमा अ पुट्ठा वि माथं विणइंसु नाम ॥ इति ते अड्डे स पॉटरीय स्वर्ग २७. ओप्रासति अम्ह एवं सू. सु. १. अ. १२ गा. ३-४/१ वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान न होने से व्यामूढमति ऐसा कहते हैं। ये कहते हैं-"हमें अपने प्रयोजन की सिद्धि दसी प्रकार से दिखती है।" पौंडरिक रूपक एवायं २७. (श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं) हे आयुउन भगवान ने ऐसा कहा था अमित्रा इह पोंडरी गामं अभय तरस णं भयम- मन् मैंने सुना है ! खलु दाते"इस आर्हतु प्रवचन में पौण्डरीक नामक एक अध्ययन है, उसका यह वर्षाव उन्होंने बताया- कल्पना करो कि जैसे पुरुकरिणी ( कमलों वाली बावड़ी) है, जो अगाध जल से परिपूर्ण है, बहुत कीचड़ वाली है, (अथवा बहुत से अश्यन्त श्वेत पद्म होने तथा स्वच्छ होते है) पानी होने से अत्यन्त गहरी है अथवा बहुतों से युक्त है। यह - रिणी ( बाली इस नाम को सायंक करने वाली या मा नाम वाली अथवा जगत् में लब्धप्रतिष्ठ है। वह प्रचुर पुण्डरीकों कमलों से सम्पन्न है। वह पुष्किरिणी देखने मात्र से चित्त को प्रसन्न करने वाली दर्शनीय, प्रस्तरूपसम्पन्न, अद्वितीयरूप बाली अन्त मनोहर) है । P सेवा जहाणामए पोक्रणी सिया बहुदा सट्टा पुण्डरीगिणी पासादिया परिसणीया पत्रिका | वनाचार [ni एकान्त-विनयवादी की समीक्षा २७. जो सत्य है, उसे असत्य मानते हुए तथा जो असाधु (अच्छा नही है, उसे साधु (अच्छा बताते हुए ये जो बहुत से विनयवादी लोग हैं। वे पूछने पर भी अपने भाव के अनुसार विनम से ही स्वर्ग-मोक्ष प्राप्ति बताते हैं । सावति च तो पुरखरको सत्य तत्थ देते तहि लीवरी से ह उस पुष्करिणी के देश-देश ( प्रत्येक देश ) में, तथा उन-उन परिया बुझ्या अगट्टिया ऊसिया रूइला यण्णमंता गंध- प्रदेशों में यत्र-तत्र बहुत-से उत्तमोत्तम पौण्डरीक ( श्वेतकमल) मंता रसमंतर फारामंतापासावरीया हरिणीवा भागए हैं, जो उठे (उभरे हुए हैं मे पानी और परिवा कीचड़ से ऊपर उठे हुए है । अत्यन्त दीप्तिमान् है, रंग-रूप में अतीव सुन्दर हैं, सुगन्धित है, से है, कोमल स्पर्शना हैं. वित्त को प्रसन्न करने द्वितीय रूपसम्पन्न एवं सुन्दर हैं। तोसे पुरीए बहुएंगे महं परपकरिए उस पुष्करिणी के ठीक बीचोंबीच (मध्यभाग) में एक बहुत बड़ा तथा कमलों में श्रेष्ठ पौण्डरिक (श्वेत) कमल स्तिथ बताया बहुए, अणुपुट्टिए कसिले रूपले सण्णमंते रसमंते फासमंसे गया है। वह भी उत्तमोत्तम क्रम से विलक्षण रचना से युक्त है, पासादीए रिमथिए अभिये किये। तथा कीचड़ और जल से ऊपर उठा हुआ है, अथवा बहुत ऊँचा है। यह अत्यन्त विकर या दतिमा है, मनोज है, उत्तम सुगन्ध से युक्त है,क्षण रसों से सम्पन है, कोमलस्पर्श युक्त है, दर्शनीय मनोहर और अतिसुन्दर है। ( निष्कर्ष यह है) उस सारी पुष्करिणी में जहाँ-तहाँ इधरउधर सभी देश-प्रदेशों में बहुत से उत्तमोत्तम पुरी (स्वेतकमल) भरे पड़े (बताए गए ) हैं । वे क्रमशः उतार-चढ़ाव से
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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