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खरणानुयोग
एकात भन्नामुवाब-समीक्षा
सूत्र २७६-२७७
अण्णाणियाग बीमंसा अण्णाणे नो नियछती।
अज्ञानियों-अज्ञानवादियों द्वारा अज्ञानपक्ष में मीमांसाअपणो , पर णालं कुतो अण्णेऽसासि ?" पर्यालोचना करता युक्त (युक्तिसंगत) नहीं हो सकता। (जब) वे
(अजानवादी) अपने आपको अनुशासन (स्वकीय शिक्षा) में रखने में समर्थ नहीं है, तब दूसरों को अनुशासित करने (शिक्षा देने)
में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? वणे मूढे जहा जंतु मूखणेतागुगामिए।
जैसे बन में दिशामूठ प्राणी दिशामूह नेता के पीछे चलता Jहओ वि अकोषिया तिवं सोपं णियग्छति ॥ है तो सन्मार्ग से अनभिज्ञ वे दोनों ही (कहीं खतरनाक स्थल में
पहुँचकर) अवश्य तीव्र शोक में पड़ते हैं - असह्य दुःख पाते हैं -- वैसे ही अज्ञानवादी सम्यक् मार्ग के विषय में दिग्मूढ़ नेता के
पीछे चलकर बाद में गहन शोक में पड़ जाते है। अंधो अंधं पहं पितो दूरमवाण गच्छती । ____ अन्धे मनुष्य को मार्ग पर ले जाता हुआ दूसरा अन्धा पुरुष आवजे उप्पहं जंतु अबुवा पंधाणमामिए । (जहां जाना है, वहाँ से) दूरवर्ती मार्ग पर चला जाता है, इसमें
बह (अज्ञानान्ध) प्राणी या तो उत्पथ (उबड़-खाबड़ मार्ग) को पकड़ लेता है.--पहुँच जाता है, या फिर उस (नेता) के पीछे
पीछे (अन्य मार्ग पर) चला जाता है। एवमेगे नियावट्ठी धम्ममाराहमा वर्य ।
इसी प्रकार कई नियागार्थी-मोक्षार्थों कहते है हम धर्म अदुवा अधम्ममावग्जे पते सव्वक्सुयं पए ॥ के आराधक हैं, परन्तु (धर्माराधना तो दूर रही) वे (प्रायः)
अधर्म को ही (धर्म के नाम से) प्राप्त-स्वीकार कर लेते हैं। वे सर्वथा सरल-अनुकूल संयम के मार्ग को नहीं पकड़ते नहीं
प्राप्त करते। एवमेगे वितमकाहि गो अणं पज्जुवासिया।
कई दुर्बुद्धि जीव इस प्रकार के (पूर्वोक) वितकों (विकल्पों) अप्पणो य वितरकाहि अयमंजू हि दुम्मति ॥ के कारण (अपने अज्ञानवादी नेता को छोड़कर) दूसरे --ज्ञान
बादी की पर्युपासना--सेवा नहीं करते । अपने ही वितकों से
मुग्ध वे यह अज्ञानवाद की यथार्थ (सीधा) है. (यह मानते हैं ।) एवं तकाए साता धम्मा-धम्मे अकोदिया।
धर्म-अधों के सम्बन्ध में अज्ञानवादी इस प्रकार के तर्को शुक्वं ते माइट्टन्ति सउणी पंजरं महा ।। से सिद्ध करते हुए दुःख को नहीं तोड़ सकते, जैसे पक्षी पिंजरे
को नहीं तोड़ सकता। स्वयं सवं पसंसंता गरहंसा पर वह।। अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हुए और दूसरे के वचन धे उ तत्य विउस्सति संसार ते विउस्सिया ॥ की निन्दा करते हुए जो उस विषय में अपना पाण्डित्य प्रकट
-सूय. सु. १, अ. १. उ. २, गा. ६-२३ करते हैं, के संसार में दृढ़ता से जकड़े रहते हैं। एगंत अण्णायवायरस समिक्खा
एकान्त अज्ञानवाद-समीक्षा२७७. अण्णापिया ता कुसता वि संसा,
२७७. वे अज्ञानवादी अपने आपको (वाद में) कुशल मानते हुए असंथुया णो बितिगिछतिण्णा । भी संशय से रहित (विचिकित्सा) को पार किये हुए (नहीं है। अकोविया आ, अकोषियाए,
अतः वे असंस्तुत) असम्बद्धभाषी या मिथ्यावादी होने से अप्रशंसा अगाणुवीयोति सुसं वरंति ॥ के पात्र) हैं । वे स्वयं अकोविद (धर्मोपदेश में अनिपुण) हैं और ---सूय. सु. १, अ. १२, गा. २ अपने अकोविद (अनिपुण-अज्ञानी) शिष्यों को उपदेश देते हैं । वे
(अज्ञान पक्ष का बाश्रय लेकर) वस्तुतत्व का विचार किये बिना ही मिथ्याभाषण करते हैं।