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अमानवार
वर्शनाचार
(१४
परियाणियाणि संकता पासित्ताणि असंकिणो। अण्णाणसंविम्या संपतिती हि सहि ।।
अह तं पम्वेज वा अहे यज्मस्स चा वए। मुंचेज्ज पथपासाओ तं तु मंदे ण देहती ॥
अहियप्पा हिवपणाणे विसमतेणुवापते । से बखे पयपरसेहि सत्य धायं नियच्छति ॥
एवं तु समणा एगे मिच्छट्ठिी अणारिया। असंकिताई संकति संकिताइं असंकिगो॥
धम्मपणा जा सा तं तु संर्फति मूदगा । आरंभाई न संति अवियत्ता अकोविया ॥
सवप्पगं विउक्कस्सं सम्वं पर्म बिगिया । अपत्तियं अकम्मसे एयम मिगे धुए।
सुरक्षित-परिवाणित स्थानों को शंका-स्पद और पाश-बन्धनयुक्त स्थानों को शंकारहित मानते हए अज्ञान और भय से उद्विग्न वे (मृग) उन-(पाशयुक्तबन्धन वाले) स्थलों में ही जा पहुँचते हैं।
यदि वह मृग उस बन्धन को लांघकर चला जाए, अथवा उसके नीचे होकर निकल जाए तो पैरों में पड़े हुए (उस) पाश बन्धन से छूट सकता है, किन्तु वह मूर्ख मृग तो उस (बन्धन) को देखता (ही) नहीं है।
अहितात्मा-अपना ही अहित करने वाले अहितबुद्धि (प्रज्ञा) वाला वह मृग कूट-पाशादि (बन्धन) से युक्त विषम प्रदेश में पहुँचकर यही पद-बन्धन से बंध जाता है और (वहीं) वध को प्राप्त होता है।
इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि अनार्य थमण अशंकनीय-शंका के अयोग्य स्थानों में शंका करते हैं और शंकनीय-शका के योग्य स्थानों में निःशंक रहते हैं- शंका नहीं करती।
वे मूह मिथ्याष्टि, अर्मप्रज्ञापना-धर्मप्ररूपणा में तो शंका करते हैं, (जबकि) आरम्भों हिंसायुक्त कार्यों में (सत्शास्त्रज्ञान से रहित है, इस कारण) पांका नहीं करते।
सर्वात्मक - सबके अन्तःकरण में व्याप्त-सोभ, समस्त माया, विविध उत्कर्षरूप मान और अप्रत्ययरूप क्रोध को त्यागकर ही जीव अकर्माश (कर्म से सर्वचा) रहित होता है। किन्तु इस (सर्वज्ञ-भाषित) अर्थ (सदुपदेश' या सिद्धान्त अथवा सत्य) को मृग के समान (बेचारा) अज्ञानी जीव ठुकरा देता है।
जो मिश्यादृष्टि अनायं पुरुष इस अर्थ (सिद्धान्त या सत्य) को नहीं जानते मृग की तरह पाश (वन्धन) में बद्ध वे (मिथ्यादृष्टि अज्ञानी) अनन्तवार पात–विनाश को प्राप्त करेंगेविनाश को ढूंहते हैं।
कई ब्राह्मण (माहन) एवं श्रमण (मे) सभी अपना-अपना ज्ञान बघारते हैं. बतलाते हैं परन्तु समस्त लोक में जो प्राणी हैं, उन्हें भी (उनके विषय में भी) वे कुछ नहीं जानते।
जैसे म्लेच्छ पुरुष अम्लेच्छ (आर्य) पुरुष के कथन (कहे हुए) का (सिर्फ) अनुवाद कर देता है। वह हेतु (उस कथन के कारण पा रहस्य) को विशेष नहीं जानता, किन्तु उसके द्वारा कहे हुए वक्तव्य के अनुसार ही (परमार्थशून्य) कह देता है।
इसी तरह सम्यग्ज्ञानहीन (ब्राह्मण और श्रमण) अपना-अपना जान बघारते-कहते हुए भी (उसके) निश्चित अर्थ (परमार्थ) को नहीं जानते । वे (पूर्वोक्त) म्लेच्छों-अनार्यों की तरह सम्यक् बोधरहित हैं।
जे एतं गाभिजाति मिन्धविट्ठो अणारिया। मिमा बा पाप्तबद्धा ते घायसंत गंतसो॥
मारणा समणा एगे सम्वे गाणं सयं बडे। सम्बलोगे वि जे पाणा न ते जाणंति किवणं ।
मिलन अमिलक्युस्स जहा ताणुभाप्तती। ण रे से विनागाति भासियं तऽणुभासतो ।।
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एवमण्णागिया नाणं वयंता विसयं सयं । पिछयत्वं ण जागति मिलक्ष्ण व अमोहिए।
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