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________________ ७३२] धरणानुयोग व्याकुल चित्तवृत्ति वाले के दुष्कृत्य सूत्र ३१४-३१८ "ह खलु अज्जो! निग्गंथागं वा निग्गंधीणं वा "हे मार्यो ! निर्ग्रन्थ और नियंन्थियों को, जो ईसिमित हरिया-समियाणं, भासा-समियाणं, एसणा-सम्यिाणं, वाले, भाषा समिति वाले, एषणासमिति बाले, आदान-भाण्डआयाण-भंड-मत्त-निमखेवणा-समियागं, उच्चार- मात्रनिक्षेपणासमिति वाले, उच्चार-प्रसवण खेल-मिधाणक-जल्ल पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिद्वावणिया-समियाण, (मैल) की परिठापनासमिति वाने, मनःस मिति वाले, वाक मथ-समियाण, वय-समियाण, फाय समियाणं. मण- समिति वाले कायसमितिवाले, मनोगुप्ति पाले. वचनमुप्ति वाले, गुप्तीणं वयगुत्तीणं, काय-गुत्तीण गुत्तिवियाणं, गुत्त- कायगुप्ति वाले तथा गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, मानार्थी, आत्मा बभयारीणं, आयट्ठीण, आयहियाणं, आय-मोईण, आय. का हित बरने बाले, आत्लयोगी, आरम्पराक्रमी, पाक्षिक पोषधों परक्कमाणं, पक्षिय-पोसहि एसु समाहिपत्ताग नियाय- में समाधि को प्राप्त और शुभ ध्यान करने वाले मुनियों को ये माणाणं इमाइं इस वित्त-समाहि ठाणाई), असमप्पण- पूर्व अनुप चित्तसार या हो जाते हैं । पुवाई समुष्पज्जेज्जा : तं जहा(१) धम्मचिता वा से असमुप्पण्णपुस्खा समुप्पज्जेज्जा १. पहिले कभी उत्पन्न नहीं हुई ऐसी धर्म-भावना उत्पन्न सर्व धम्मं जाणित्तए। हो जाय जिससे वह सर्वश्रेष्ठ धर्म को जान ले । (२) सण्णि-जाइ-सरणेग सण्णि-णाणं वा से असमुप्प २. पहले नहीं हुर संशि-जातिस्मरण ज्ञान द्वारा अपने पूर्व पणपुथ्ये समुपज्जेज्जा, अप्पणो पौराणियं जाई उन्मों का स्मरण करले । सुमरित्तए। (३) सुमिणदसणे वा से असमुप्पण्णपुले समुप्पज्जेजा, ३. पूर्व अदृष्ट यथार्थ स्वप्न दिस जाय। बहातच्च सुमिणं पासित्तए। (४) देवरसणे वा से असमुप्पग्ण-पुज्वे समुप्पज्जेज्जा, ४. पूर्व अदृष्ट देव-दर्शन हो जाय और दिव्य देव-ऋद्धि, विध्य देविकि, दिब्य देवजुई. दिवं देवाणुभावं दिव्य देव-ध वि और दिव्य देवानुभाव दिख जाय । पासित्तए। (५) ओहिणाणे वा से असमुप्पण-पुष्ये समुप्पज्जेज्जा ५. पहले नहीं हुआ अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाय और उसके ओहिणा लोग जागित्तए। द्वारा वह लोक को जान लेवे। (६) ओहिसगे वा से असमुप्पण्ण-पुटवे समुष्पज्जेम्जा, ६. पहले नहीं हुआ अवधिदर्शन उत्पन्न हो जाय और उसके ओहिगा लोयं पासित्तए। द्वारा यह सरोक को देख लेवे। (७) मणपज्जयनाणे वा से असमुप्पण-पुथ्वे समुप्प. ७. पहले नहीं हुआ मनःपयंवज्ञान उत्पन्न हो जाय और जजेजजा, अंतो मणुस्सखित्तेमु अढाइजेसु दीव- मनुष्य-क्षेत्र के भीतर अडाई द्वीप दो समुद्र में रहे हुए संजी समहसु सम्णोणं पचितियाणं एज्जत्तगाणं मणोगए पचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के चनोगत भावों को जान ले। भावे जाणिसए। (६) केवलणाणे वा से असमुपाण-पुल्वे समुप्पज्जेज्जा, ८. पहले नहीं हुआ कंवलज्ञान उत्पत्र हो जय और सम्पूर्ण केवलकप्यं सोयालोयं जाणित्तए। लोक-अलोक को जान लेवे । (E) केवलवंसणे वा से असमुप्पण्ण-पुष्वे समुप्पामेज्जा, ६. पहले नहीं हुआ केवलदर्पन उत्पन्न हो जाप और सम्पूर्ण केवलकप्पं सोयालोयं पासित्तए। लोक-अलोक को देख लेवे । (१०) केवल-भरणे वा से असमुप्पण्ण-पुर्व समुप्प- १०. पूर्व अप्राप्त केवल मरण प्राप्त हो जाय तो वह सर्व उजेक्ला, सध्वमा पहाणाए। -दसा. द. ५, सु.६ दुःखों के सर्वथा अभाव को प्राप्त हो जाता है। इन दस स्थानों से समाधि (आत्मानन्द) भाव की प्राप्ति होती है। सकिलिटुचिस्स अकिच्चाई व्याकुल चित्तवृत्ति वाले के दुष्कृत्य३१८. अगेगचित्त खलु अयं पुरिसे, से मेयणं अरिहह पूरइत्तए । ३०८. वह (असंयमी) पुरुष अनेक चित्त वाला है। बह चलनी को जल से भरना चाहता है। १ (क) ठाणं अ. १०, सु. ७५५ (स) सम. स. १०, सु. १
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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