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सूत्र ३१५-३१७
घर प्रकार की मन-गुप्ति
चारित्राचार : गुप्ति वर्णन
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चविहा मणगुती--
चार प्रकार को मन-गुप्ति३१५ सच्चा तहेध मोसाय, सच्चा मोसा तहेव य।
११५. सत्या, मृषा, नत्यामृषा और चोगे असल्यामृषा-इस चउत्थी असच्चमोसा प मणमुत्ती चन्विहा ॥ प्रकार मनो-मुप्ति के चार प्रकार है ।
-उत्त. अ.२४, गा.२० मणस्स दुटुस्सोवमा
मन को दुष्ट अश्व की उपमा
३१६. केशीकुमार श्रमण ने गीतम को पूछा३१६. ५० -अयं साहसिओ भीमो, दुगुस्सो परिधावई । प्र.-"यह साहसिक, भयंकर, पुष्ट अश्व जो चारों तरफ जंसि गोयम ! आमढो, कहूं तेण न होरसि ?॥ दौड़ रहा है गौतम ! तुम उस पर चढ़े हुए हो। फिर भी वह
तुम्हें उन्मार्ग पर कैसे नहीं ले जाता है ?"
गणधर गौतम ने इस प्रकार कहाज-पथावन्तं निगिम्हामि, सुपरस्मीसमाहियं । उ०-दौड़ते हुए अश्व को मैं धुत रश्मि से ("श्रुतज्ञान न मे गच्छद उम्मगर्ग, मग्गं च पडिवज्जइ । की लगाम से) वश में करता हूँ। मेरे अधीन हुआ अव उन्मार्ग
पर नहीं जाता है, अपितु सन्मार्ग पर ही चलता है।"
केशी ने गौतम को पूछा4.-आसे य इह के बुसे ? कसी गोपममानवी । प्रा-"अश्व किसे कहा गया है ?"
केसिमेवं बुबंतं तु, गोयमो इषमम्बी ।। केशी के पूछने पर गौतम ने इस प्रकार महाउ०—मणो साहसियो भीमो, बुट्ठस्सो परिधाई। उ-मन ही साहसिक, भयंकर और दुष्ट अश्य है, जो तं सम्मं निगिहामि, धम्मासमाए कम्थगं ॥ चारों तरफ दौड़ता है। उसे मैं अच्छी तरह वश में करता हूँ। -उत्त. अ. २३, गा. ५५-५८ धर्म शिक्षा से वह कन्थक (उत्सम जाति का अश्य) हो गया है।"
अथवा उस मन रूपी कंथम (अश्व) को मैं धर्म शिक्षाओं से सम्यग्
रूप से वश में करता हूँ। बस चित्त समाहिट्ठाणा
दस चित्तसमाधि स्थान३१७. बह खनु थेरेहि मगवतेहिं इसचित्त-समाहिट्ठाणा एण्णता। ३१७. इस आहेत प्रवचन में स्वदिर भगवन्तों ने दश चित्त
समाधिस्थान कहे हैं। 4.---कयरे खलु ते थेरिहि भगवंतेति बम चित्तसमाहिट्ठागा प्र....-भगवन् ! दे कौन मे दस चित्तममाधिस्थान स्थविर पण्णता ?
भगवन्तों ने कहे हैं ? उ.- इमे खलु ते बेरिहिं भगवतेहि दस वित्तसमाहिढाणा २०-ये दश चित्तसमाधिस्थान स्थविर भगवन्तों ने कहे
पण्णत्ता। __ -दसा. द. ५, सु. १-२ हैं। जैसे"अज्जो!" इति समरे भगवं महावीरे समणा- "हे आर्यो!" इस प्रकार आमन्त्रण कर श्रमग भगवान निग्गथा य निग्गंधीओ य आमंतिता एवं बयासी महावीर निम्रन्थ-निन्थियों से कहने लगे
"मग॥
१ सत्या मनोगुप्ति-सत्य वस्तु का मन में चिन्तन, यथा-जगत् में जीव विद्यमान है। २ असरया मनोगुप्ति-असत्य वस्तु का मन में चिन्तन, यथा-जीद नहीं है। ३ सत्या-मृषा मनोगुप्ति-कुछ सत्य और कुछ असत्य वस्तु का मन में चिन्तन, पथा - आम्र आदि नाना प्रकार के वृक्षों को
देखकर "यह आम्र वन है" ऐमा चिन्तन करना । बन में आम वृक्ष हैं यह तो सत्य चिन्तन है किन्तु पलाश, स्वदिर, धन आदि
नाना प्रकार के वृक्ष भी वन में हैं अतः उक्त चिन्तन असत्य भी है। ४ असत्या अमृषा मनोगुप्ति जो चिन्तन सत्य और असत्य नहीं है, यथा-किसी आदेश या निर्देश का चिन्तन–'हे देवदत्त ! घड़ा
ला" या "मुझे अमुक वस्तु लाकर दे" इत्यादि चिन्तन ।