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पूष ६६५-६६
परिग्रह में आसक्ति का निवेध
चारित्राचार
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मतोरंगमा एते गोय तोरं गमित्तए।
वे अतौरंगम हैं. तीर-किनारे तक पहूँचने में (मोह कर्म का
क्षय करने में) समर्थ नहीं होते। अपारंगमा एते, गो य पार गमिसए।
दे अपारंगम है,पार-संसार के उस पार निर्वाण तक)
पहुंचने में समर्थ नहीं होते हैं। अश्याणिज्जं . आवाय सम्मि ठाणे - विति। वह (मूद) आदागीय-सत्यमार्ग (संपम पथ) को प्राप्त करके वितह पम्प खेसाणे सम्मि ठामि द्विति ॥ भो उस स्थान में स्थित नहीं हो पाता । अपनी मूढ़ता के कारण
-आ. सु १, अ. २, उ. ३, सु. ७६ वह असत्मार्ग को प्राप्त कर उसी में ठहर जाता है। भारपवयं घेव अबुजामागे,
आयु-क्षय को नहीं समझता हुआ ममत्वशाली पापकर्म करने ममाति से साहसकारि मंदे। का साहस करता रहता है। वह दिन-रात चिन्ता से संतप्त महो म रातो परितप्पमागे,
रहता है। वह मूड स्वयं को अजर-अमर के समान मानता हुआ अट्ट सुपूढे अजरामरख ।। (धन आदि पदाथ) में मोहित रहता है। महाहि वितं पसयो त सम्वे,
समाधि का इच्छुक व्यक्ति धन और पशु आदि सब पदाथों बांधवा जेय पिता य मित्ता। का (ममत्व) त्याग करे । जो बान्धव और प्रिय मित्र हैं, वे वस्तुतः मालम्पती सो वि य ए मोह,
लोकोत्तर उपकार नहीं करते हैं तथापि मनुष्य उनके वियोग से अन्ने जपा तं सि हरति वितं ॥ शोकाकुल होकर विलाप करता है, और मोह को प्राप्त होता -सूय. सु १, अ. १०, गा. १८-१९ है। (उमके मर जाने पर) उसके द्वारा अत्यधिक कष्ट से उपा
जित) धन का दूसरे लोग ही हरण कर लेते हैं। परिगहे आसत्ति णिसेहो
परिहकासात निषेत्रपरिरणहामओ अप्पा अवसपणा ।
परिग्रह से स्वयं को दूर रखे। अग्णहा गं पाप्लए परिगहेज्जा।
जिस प्रकार गृहस्थ परिग्रह को ममत्व भाव से देखते हैं उस प्रकार न देखे, अन्य प्रकार से देखे और परिग्रह का वर्जन
करे। एस मग्गे आरिएहि, पवेविते, जहत्य कुसले गोलिपिज्जासि यह (अनासक्ति का) मागं आर्य-तीयंकरों ने प्रतिपादित सिरेमि।
किया है, जिससे कुशल पुरुष (परिग्रह में) लिप्त न हो । ऐसा मैं -आ. सु. १, ब. २, उ. ५, सु (ध) कहता हूँ। परिग्गहं महाभयं
परिग्रह महाभय६६६. से सुपडिमुवं सुविनियंति णच्या परिसा परमबाखू । विप- ६६६. (परिग्रह महाभय का हेतु है) यह (प्रत्यक्षशानी के द्वारा) रिक्कम एतेसु व अंभोरं ति बेमि ।
सम्यक् प्रकार से दृष्ट और उपदेशित है। (इसलिए) परमचा-आ. सु. १, अ. ५, उ, २, सु. १५५ मान् पुरुष (परिग्रह-संयम के लिए) पराक्रम करे। परिग्रह का
संयम करने वालों में ही ब्रह्मचर्य होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। परिगहमृत्ति एव मुत्ति-.
परिग्रह मुक्ति ही मुक्ति है६६७. [पावरं जंगम देव, धणं धणं उवाखरं ।
६६७. (चल और अचल सम्पत्ति, धन, धान्य और गृहोपकरणपक्षमागस्स कम्मेहि. नाल गुमबाट मोयणे ।
ये सभी पदार्थ कर्मों से दुख पाते हुए प्राणी को दुःख से मुक्त
-उत्त. म. ६, मा. ५ करने में समर्थ नहीं होते हैं।) परिग्गहेण वुहं अपरिगहेणं सुहं-
परिग्रह से दुःख–अपरिग्रह से सुख-- ६६८. धम्मात य पारए मुणी, आरम्भस्स य अंतए ठिए। ६६८, जो पुरुष धर्म का पारगामी है और आरम्भ के भन्न सोपति प प ममारणो, नो बलमंति गियं परिग्गहं॥ (अभाव) में स्थित है, (बही) मुनि है। ममत्वयुक्त पुरुष शा।
करते हैं, फिर भी अपने परिग्रह को नहीं पाते।