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________________ vt=] चरणानुयोग परिणाहरू ६६४. आवंती के आवंती लोगंसि परिग्गहावंसी से अप्पं या बहुं बा अणुं वा पूल बा, वित्तमंत था, अधित्तमं वा एतेसु जेब परिग्रहावंती । एतदेवेति महम्यं प्रति । लोगविसं च णं उबेहाए । एते संगे अविजाणतो परिग्गहपावस फलं दुक्खं६६५. सं परिगिनं दुपर्य उत्पयं अभिभुंजियानं ससिचियाणं तिविग जावि से तत्थ मत्ता भवति अध्या वा, रहुगा वा । - सुमिना एवं पचेवितं । परिग्रह का स्वरूप - ३ से सरथ गवते बिटुलि भोवणाए । तो परिसि संभूतं महोबकरमं भवति । संप से गाया विमति भसहारी वा सहरति बास्तिया से विवस्ततिया से परवाच वासेति । परिग्रह का स्वरूप . . . . ५. १५४ इति से परसद्वाए कुराई कमाई वाले पशुध्यमाने ते वृश्लेण मूढे विपरियास मुवेति । मगोतरा एते गो मोह तरिए ས་་་་་་་ परिग्रह का स्वरूप -- ६६४. इस जगत् में जितने भी प्राणी परिग्रह वाले हैं, वे अन्य या बहुत सूक्ष्म या स्थूल, सचित या अत्ति वस्तु को ग्रहण करते हैं। वे इसमें होने से ही परिधान है। परिही परियों के लिए महाभय का कारण होता है। साधको पहिलोगों के वित्त-धन या नृत (संज्ञाओं) को देखो। जो आतियों को नहीं जानता, वह महाभय को पाता है। परियह पाप का फल दुःख ६६५. वह परिग्रह में आसक्त मनुष्य द्विपद (मनुष्य-कर्मचारी) चतुष्पद (पशु आदि) का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है । उनको कार्य में नियुक्त करता है। फिर धन का संग्रह-संचय करता है। अपने दूसरों के और दोनों के सम्मिलित प्रयत्नों से (अपनी पूर्वाजित पूंजी, दूसरों का श्रम तथा बुद्धि तीनों के सहयोग से) उनके पास अल्प या बहुत मात्रा में धन संग्रह हो जाता है । वह उस अर्थ में आसक्त हो जाता है और भोग के लिए संरक्षण करता है । पश्चात् विविध प्रकार के भोगोपभोग करने के बाद बची हुई विपुल अर्थ सम्पदा से महान् उपकरण वाला बन जाता है । एक समय ऐसा आता है, जब उस सम्पत्ति में से दामादबेटे-पोले हिस्सा बंटा लेते हैं, बोर बुरा लेते है, राजा उसे छीन लेते हैं या वह नष्ट विनष्ट हो जाती है तथा गृहदाह के साथ जल जाती है। इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष, दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ अपने दुःख उत्पन्न करता है, फिर उस दुःख से त्रस्त होकर सुख को खोज करता है, पर अन्त में उसके हाथ दुःख ही लगता है इस प्रकार वह मूह विपर्यास को प्राप्त होता है । भगवान् ने यह बताया है - ( जो क्रूर कर्म करता है, वह मूढ़ होता है। मूढ़ मनुष्य सुख की खोज में बार-बार दुःख प्राप्त करता है ।) ये सूअर अर्थात् संभार प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होते एवं प्रया लेने में असमर्थ रहते हैं।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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