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________________ सूत्र ६६१-६६३ धामण्य रहित श्रमण पारिवाचार १४३७ अतारिसे मुणी ओह तरए जणगा लेण विष्पमका । जिसने माता-पिता को छोड़ दिया है ऐसा व्यक्ति न मुनि हो सकता है न ही संसार-सागर को पार कर सकता है।" सरणं तत्थ णो समेति । किह णाम से तत्य रमति । बह मुनि (स्वजनों का विलाप-रुदन सुनकर) उनकी शरण में नहीं जाता। वह तत्वज्ञ पुरुष भला कैसे उस राहवास) में रमण कर सकता है ? एतं गाणं सया समणुवासेज्मासि । __मुनि इस ज्ञान को सदा (अपनी आत्मा में) अच्छी तरह -आ. सु. १, अ. ६, उ. १, सु. १८१-१८२ बसा ले । सामग्णरहिया समणा श्रामण्य रहित धमण६६२. जे धम्मल विणिहाय भुजे, ६६२ जो भिक्षा से प्राप्त अन्न का संचय कर भोजन करता है, वियोण साहटु य जो सिणाति । जो शरीर को संकुचित कर निर्जीव जल से स्नान करता है, जो जो घोवति लसपती व बत्य, कपड़ों को धोता है उन्हें फाड़कर छोटे और सांध कर बड़े करता अहार से जागणियस्स रे ।। है, वह नागन्य (श्रामण्य) से दूर है, ऐसा कहा है। कम्म परिणाप इगंसि धीरे, जल के सभारंभ से कर्म-बंध होता है, ऐसा जानकर धीर बियडेण मौवेन्म व अविमोक्छ । मुनि मृत्यु पर्यन्त निर्जीव जल से जीवन बिताए । वह बीज, कंद से गोय-कवाति अमुंगमागे, आदि न खाए, स्नान आदि तथा स्त्रियों से विरत रहे। विरते सिणाणाविसु इस्थिवासु ॥ जे मायर पियरे व हेचा, जो माता, पिता, घर, पुत्र, पशु और धन को छोड़कर शारं महा पुत पसु । स्वादु भाजपाले कुली की ओर दौड़ता है, वह श्रामण्य से दूर कुलाई जे धावति सादुगाई, है, ऐसा कहा है। अहाह से सामणिपस्स रे ।। कुलाई में धाति सादुगाई, जो स्वादु भोजन काले कुलों की ओर दौड़ता है, पेट आधाति धम्म उदराणु गिरे। भरने के लिए धर्य का आख्यान करता है और जो भोजन के महार से मायरियाग सतंसे, लिए अपनी प्रशंसा करवाता है, वह आयं श्रमणों की गुण-संपदा थे लावदज्जा मसगस्स हे ॥ के सौवें भाग से भी हीन होता है। निश्खाम रोणे परभोयषम्मि, जो अभिनिष्क्रमण वर गृहस्थ से भोजन पाने के लिए दीन मुहमंगलिभोरियाणुगिझे। होता है, भोजन में आसक्त होकर दाता की प्रशंसा करता है वह मौवारगिडे व महावराहे, चारे के लोभी विशालकाय सुअर की भाति शीघ्र ही नाश को बदूर एवेहति घातमेव ॥ प्राप्त होता है। अन्नस पाणस्सिहसोइयस्सं, जो इहलौकिक अन्न-पान के लिए प्रिय वचन बोलता है, अगुप्पियं मासति सेवमाणे । पावस्था और कुशीलता का सेवन करता है यह पुआल की भांति पासस्पयं चेव कुसीलयं घ, निस्सार हो जाता है। निस्सारए होति जहा पुलाए ॥ -सूय. सु. १, अ. ७, गा. २१-२६ पंच आसवदाराए पांच आस्रव द्वार६६३. पंच आसवदारा पग्णता, तं जहा ६६३. पांच आसव द्वार बताये हैं, जैसे१. मिश्छतं, २. अविरह, ३. पमाया, ४. कसाया, (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय ५. जोगा। - सम. समवाय ५, सु. १ और (५) योग । XX
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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