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________________ ४३६ वरणानुयोग स्यागी श्रमणों के लिए प्रभाव का निषेध पूत्र ६५७-६६१ परिश्चाई समणाणं पमाय णिसेहो त्यागी श्रमणों के लिए प्रमाद का निषेध६५७. विच्याण धणं च भारियं, पबइओ हि सि मगगारिय। ६५७. धन और पत्नी का त्याग कर अनगार-वृत्ति के लिए मा बन्तं पुगो वि आदए, समयं मोयम | मा पमापए॥ घर से निकला है. अतः वमन किये हुए कामभोगों को फिर से स्वीकार न कर । हे गौतम | तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । अबउभिनय मित्तबन्ध, विउस चैव धोहसंचर्य। मित्र, बान्धव और विपुल धनराशि को छोड़कर फिर से मातं विदयं गवेसए, समय गोयम | मा पमापए । उनकी गवेषणा मत कर । हे गोतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत -उत्त. अ.१०, गा. २६.३० कर । सलुइरो समणो शल्य को समाप्त करने वाला ही श्रमण होता है६५८. महर पलिगोव जाणिपा, का विय वंदण-पूयणा हहं। ६५८. जो बंदना और पूजा है वह महाकीचड़ है, उसे भी इस सुहमे सल्ले बुबद्धरे, विमं ता पयहेज्न संघवं ॥ लोक मे या जिन-शासन में स्थित विद्वान् मुनि गर्वरूप सूक्ष्म एवं -सूम, सु. १, भ. २, उ २, मा.११ कठिनता से निकाला जा सकने वाला शल्य जानकर उस संस्तव का परित्याग करे। चाईणं देवगई त्यागियों की देवगति६५६. गवासं मणिकुंडलं, पसयो वासपोवसं । ५६. गर, गो. मम गुप्ता , पण वारा भोर पुरुष-समूहसम्वमेयं चढ़तागं, कामको भविससि ॥ इन सबको छोड़ । ऐसा करने पर तू काम-क्पी (इच्छानुकूल . -उत्स. अ. ६, मा.५ रूप बनाने में समर्थ) होगा। धीराधमां जाणंति धीर पुरुष धर्म को जानते हैं - ६६.. आसं च छ व विगिव धौरे । ६६०. हे धोर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता (मनमानी) का त्याग कर दे। तुमं चैव तं सल्लमाइट। उस भोगेच्छा रूप शल्प का सृजन तूने स्वयं ही किया है। जेग सिया तेण गो सिया। जिस भोग सामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख भी नहीं होता है । (भोग के बाद दु.ल है।) इयमेव णावयुजति जे-जणा मोहपासका। जो मनुष्य मोह की सघनता से आवृत हैं, हके हैं, वे इस तथ्य को, उक्त आशय को-कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख -आ. सु. १, अ. २, न. ४, सु. ६३ मिलता है, कभी नहीं, वे क्षणभंगुर है, तथा वे ही शस्य (कांटा) __ रूप है; नहीं जानते हैं। घुवचारिणो कम्मरयं धुणंति ध्रुवचारी कर्मरज को धुनते हैं६६१. मायाग मो! सुस्सुस को ! धूतबा पवेदयिस्सामि। हह ६६१ हे मुने! समझो, सुनने की रुचि करो, मैं धृतवाद का बस अत्तताए तेहि है हि कुलेहि अभिसेएण अभिसंभूता अभि- निरूपण करूंगा, इस संसार में आत्मभाव से प्रेरित होकर, उन संजाता अभिणिवट्ठा अभिसंवुड्डा अभिसंबुद्धा अभिणिक्खता कुलों में शुक्रशोणित के अभिषेक-अभिसिंचन से माता के गर्भ में अपुषेणं महामुनी। कललरूप हुए, फिर प्रसव होकर संवद्धित हुए, तत्पश्चात् अभिसम्बुद्ध हुए, फिर धर्म श्रवण करके विरक्त होकर अभिनिष्क्रमण किया। इस प्रकार क्रममाः महामुनि बनते हैं। तं परक्कमतं परिदेवमाणा 'मा णे अयाहि' इति से वति । मोक्षमार्ग संयम में पराक्रम करते हुए उम मुनि के माताछयोवणीता अजमोवषण्णा अपरकारी जणगा क्वति । पिता आदि करुण विलाप करते हुए यों कहते हैं--"तुम हमें मत छोड़ो, हम तुम्हारे अभिप्राय के अनुसार व्यवहार करेंगे, तुम पर हमें ममत्व है।" इस प्रकार आक्रन्दन करते हुए वे रुदन करते हैं।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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