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२७४] चरणानुयोग
वनस्पतिकाय के विराधक से
dreader विरागेण मिला
जिसे हो-४२. उप्पलं मं वा वि, कुमुयं वा मगदंतियं । अन्नं वा पुप्फ सचित्तं तं च संतुंचिया दए ॥ शं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अफप्पियं । वेंतियं पडियाहवले, न मे कप्पड़ तारिमं ॥ उप्पलं वा विगत सम्मदिया ए शंभवे मतपाणं तु, संजयाणं अकप्पियं । पैंतियं पडियाले न मे कप्पड़ तारिसं ॥ - दस. अ. ५ . २. गा. १४-१७
विविहकाय विरागेण आहार महणणितेही४२. मी पाचाणि नीयाणि हरियाणव अजमकर नया तरि परिवए ।
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साहटट, निविवित्ताणं, सचितं घट्टिया य । तहेब समगट्ठाए, उवगं संपणोल्लिया ॥ ओगाहहता चलता, आहारे पापभोयणं । देतियं पडियाइक्ले, न मे कप्पइ तासिं ॥
दरा. अ. ५. उ. १. मा. २५-३१
(४) उम्मसदो
पाणाइस आहारगहणणिसेहो महियस्थ व परि वर्णविही
९४४ से भिक्खू वा भिक्खुणी या गाहावतिकुलं पिकवावपडियाए अणुपविट्ठे समाने से ज्जं पुण जाणेज्जा --
असणं या- जाव- साइमं वा पाणेहि वा पणएहि वा बीएहि वा. हरिएहि वा संसतं, जम्मिस्तं, सीओदएण वा ओसितं सावा परिघासिय
तहपगारं असणं या जाव साइमं वा परहस्यंसि वा परपास वा अफासू असपिज्जं त्ति मण्णमाणे लाभे बि संते णो पत्रिगाहेज्जर ।'
से यह पारसिया से समदाय ए मेजा, एवं तमक्कमित्ता आहे आरामंसि वा अहे जयरसयसि बा, अप्पंडे, अप्पपाणे, अप्पमीए अध्यहरिते, अप्पांसे अलग-पग वगमय-मक्क हातानए विगिचियविनि
आहार लेने
का निषेध
वनस्पतिकाय के विशयक से आहार लेने का निषेध
६४२. कोई उत्पाल, पदम कुमुद्र, मालती या अन्य किसी सचित पुष्प का छंदन कर भिक्षा दे वह भक्त-पान संगति के लिए अकल्पनीय होता है देती हुई स्त्रीको प्रतिषेध करे - "इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता।" कोई उत्पलपद्म, कुमुद, मालती या अन्य किसी सचित पुष्प को कुचल कर भिक्षा दे, वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री की प्रतिषेध करे - "इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता ।"
सूत्र ६४२-६४४
विविध काम विशधक से भिक्षा लेने का निषेध
६४३. प्राणी (दीन्द्रियावि) बीज और हरियाली को कुचलती हुई स्त्री को असंयमकारी जानकर मुनि उसके पास से भक्त पान न ले ।
एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकालकर, सचित्त वस्तु पर रखकर, सचित वस्तु का स्पशंकर इसी प्रकार पावस्य सवित जल को उलीच (शिश कर सचित जन में अवगाहन अर्थात् चलकर चलाकर या हिलाकर श्रमण के लिये आहार पानी लाए तो मुनि उरा देती हुई स्त्री को कहे इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता ।"
(४) उन्मिषदोष
प्राणी आदि से युक्त आहार ग्रहण का निषेध और गृहीत आहार के परटने की विधि
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९४४. भिक्षु या भिक्षु णी आहार प्राप्ति के उद्देश्य से गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होकर यह जाने कि
अशन यावत् – स्वाद्य रसज प्राणियों से, फफूंदी- फूलण से, गेहूँ आदि के बीजों से हरे अंकुर आदि से संसकत है, मिश्रित है, सचित्त जल से गीला है तथा सनित्त रज से युक्त है,
इस प्रकार का अशन यावत्- स्वाद्य दरता के हाथ में हो, पात्र में हो तो उसे अप्रशसुक और अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे।
१ असणं पाणगं वा बि, खाइमं साइमं तहा । पुप्फेसु होज्ज उम्मीसं बीएसु हरिएसु वा । तं भने भत्तषाणं तु, संजयाण अकप्पियं । देतियं पडियाइक्स्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।
कदाचित् दाता या ग्रहणकर्ता को भूल से जैसा संसक्त या मिश्रित आहार ग्रहण कर लिया गया हो तो उस आहार को लेकर एकान्त स्थान उद्यान या उपाश्रय में चला जाए और वहाँ जाकर जहाँ किसके अंडे जीव जन्तु बीज, हरियाली ओस के कण, सनित्त जल तथा चीटियाँ, लीलन- फूलन, गीली
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- दस. अ. ५, उ. १, गा. ७२-७३