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________________ पर३४५-३४६ आर्य-अनार्य वचनों का स्वरूप चारित्राचार ४५ ताडिज्जमाणा वा परियाविज्जमाया वा किलामिजमाणा अंगुली दिखाकर धमकाये जाने या हॉटे जाने अथवा ताड़न किये वा उद्दविज्ममाणा बा-जाव-लोमुक्खणणमातमवि हिंसाकर जाने, सताये जाने, हैरान किये जाने या उद्विग्न (भयभीत) किये दुमखं भयं पहिसवेति । जाने-यावत-एक रोम मात्र के उखाड़े जाने से वे मृत्यु का सा कष्ट एवं भय महसूस करते हैं। एवं नया सवे पाणा-जाव-सम्वे सत्ता प हंतला, ण ऐसा जानकर समस्त प्राण- यावत् -- सत्व की हिंसा नहीं अज्जायश्वर, ग परिघेतठवा, प परितावेयध्या, " उद्द- करनी चाहिए. उन्हें बलात् अपनी आज्ञा का पालन नहीं कराना बेयस्वा । चाहिए, न उन्हें बलात् पकड़कर या दास-दासी आदि के रूप में -सूय. सु.२, अ.१.मु.६७६ खरीद कर रखना चाहिए, न ही किसी प्रकार का संताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न (भयभीत) करना चाहिए। आयरियाणायरिश्मयणाणं सरूवं आर्य-अनार्य वचनों का स्वरूप३४६. आवती के झावंसी लोयंसी समणा य माहणा व पुढो विवावं ३४६ इन मत-मतान्तरों बाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण वदति । या ग्राहाण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न-भिन्न मतवाद (विवाद) का प्रतिपादन करते हैं। जैसे कि कुछ मतरादी कहते है"से विच, सुयं च , मयं च णे, विष्णस्य चणे, "हमने यह देख लिया है, सुन लिया है, मनन कर लिया है उस अहं तिरिय दिसासु सम्वतो सुपडिलेहि घणे-सवे और विशेष रूप से जान भी लिया है, (इतना ही नही) ऊँची, पाणा सवे जोवा सब्वे भूता सम्वे सत्ता हतबा अज्जावेतव्वा नीची और तिरछी सभी दिशाओं में सब तरह से भली-भांति परिघेतवा, परितावेतम्घा, उद्दबेतव्या। एस्थ वि जामह इसका निरीक्षण कर लिया है कि सभी प्राणी, सभी जीव, सभी णत्यत्य दोसो।" भूत, रमी मत्न हता मरले प्रोग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें परिताप पहुंचाया जा सकता है, उन्हें गुलाम बनाकर रखा जा सकता है, उन्हें प्राण-हीन बनाया जा सकता है। इसके सम्बन्ध में यही समझ लो कि (इस प्रकार से) हिंसा में कोई दोष नहीं है।" अणारियवयगमेयं । यह अनार्य (पाप-परायण) लोगों का कथन है। तस्पते आरिया ते एवं बयासी - इस जगत् में जो भी आर्य-पाप कर्मों से दूर रहने वाले हैं, उन्होने ऐसा कहा है"से पुट्टिच मे, दुम्सुयं च मे, बुम्मयं च भे, बुग्विण्णायं "आपने दोषयुक्त ही समझा है, ऊँची-नीची-तिरछी सभी च भे, उड अहं तिरिय विसासु सम्वतो दुप्पडिलेहित च भे, दिशाओं में सर्वथा दोषपूर्ण होकर निरीक्षण किया है, जो बाप जं तुम्भे एवं आचक्षह, एवं भासह, एवं पग्णवेह, एवं ऐसा कहते हैं. ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रशापन करते हैं, ऐसा परूवेह-सवे पाणा सम्बे भूता सम्वे जीवा सर्व सत्ता प्ररूपण (मत-प्रस्थापन) करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और हंतम्या, मज्जावतम्या, परिसम्वा, परितावेगवा, उद्द- सत्व हनन करने योग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है, येतव्या । एस्थ वि जाणह पत्त्य बोसो।" उन्हें बलात् पकड़कर दास बनाया जा सकता है, उन्हें परिताप दिया जा सकता है, उनको प्राणहीन बनाया जा सकता है, इस विषय में यह निश्चित समझ लो कि हिंसा में कोई दोष नहीं है।" अपारियवयणमेयं । यह सरासर अनार्यवचन है। वयं पुग एषमाधिपखामो, एवं भासामो, एवं पण्णवेमो, एवं हम इस प्रकार कहते हैं, ऐसा ही भाषण करते है, ऐसा ही परूवमो-- प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा हो प्ररूपण करते हैं कि"सम्वे पागा सम्बे भूता सतर्व जीधा सध्ने सत्ता ण हसम्वा, "सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्वों की हिंसा नहीं करनी ग अजावेतव्वा, ण परिघेतवा, ण परियायव्या, प उहः चाहिए, उनको जबरन शासित नहीं करना चाहिए, और न उन्हें बेतल्या । एत्य विभाणह गत्यस्य दोसो।" इराना-धमकाना, प्राण-रहित करना चाहिए। इस सम्बन्ध में यह निश्चित समझ लो कि अहिंसा का पालन सर्वथा दोषरहित है।"
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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