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२४४ ] वरणा
अद्विमिंगाए अट्ठाए अणट्ठाए
अध्येगे हिसि मे सि बा
अप्पेगे हिसंति था,
छीना की हिसकातु है
अभ्ये हिंसिस्सति वा था णे बघति ।
एत्थं एत्थं समारम्भमाणस्स इन्वेते आरम्भा अपरिणाया भवंति ।
एल्म सत्थं असमारम्भमाणस्स कवेते आरम्भर परिणाया भवंति ।
जीवाणं हिंसा कम्मबंधहे लि... तिकालिय अरहंताणं समा परूवणा
३४५. खलु भगवता छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तं जहापुढवावयासकाविया ।
से बनाए मम अस्तायं वंडेण वा अद्वीण वा मुट्ठीग या लूण या कबाले था आउडिजमानस्स या हम्ममाणस्स वा तज्माणस्स वा ताडिज्माणस्त था परिताविज्ज माया का किलापिनास वा उ न्याय सोमुक्लगणमासमवि हिंसाकर
अपसिंग
सूत्र २४४-३४५
और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं। कुछ किसी प्रयोजनव नियोजन व्यर्थ ही जीवों का वध
करते हैं ।
इच्वेवं जाग सब्बे वाणा- जावसता इंडेन वा जाचकवाण या आयडिज्ममाणा वा हम्ममाणा वा तजिज्ञमाणा वा
कुछ व्यक्ति इन्होंने मेरे (स्वजनादि की हिंसा की इस कारण ( प्रतिशोध की भावना से) हिंसा करते हैं ।
तं परिणाम मेधाषी णेव सयं तसकायसत्यं समारंभेज्जा हिंसासत्यं समारंभावेच्या नेवऽपणे उसका यसत्यं समारंभ समाजा जस्सेले ततकामसत्यसमारम्भा परिण्णाया भवंति से ह मुणी परिणाम् सि बेमि ।
. सु. १, अ. १४.६, सु. ३००१५ यानी मुनि होता है। अन्सर सम्बनी सम्यं बिल्स पाने पियाबए न हमे पाणियो पाणे, चव-बेराओ उवरए ॥
कुछ मेरे वजनादि की हिंसा करता है, इस कारण ( प्रतीकार की भावना से हिंसा करते हैं।
कुछ क्ति (यह मेरे स्वजनादि की हिंसा करेगा) इस कारण ( भावी आतंक / भय की भावना से) हिंसा करते हैं।
जो यसकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन आरम्भ (आरम्भजनिन कुपरिणामों से अनजान ही रहता है।
जो साविक जीवों की हिंसा नहीं करता है. यह इन आरम्भों से सुपरिचित ( युक्त) रहता है।
सब दिशाओं से होने वाला सब प्रकार का अध्यात्म (सुख) जैसे मुझे इष्ट है, वैसे ही दूसरों को इष्ट है और सब प्राणियों उत्स. भ. ६, गा. ६ को अपना जीवन प्रिय है यह देखकर भय और वैर से उपरत पुरुष प्राणियों के प्राणों का घात न करे ।
यह जानकर बुद्धिमान मनुष्य स्वयं उसकीय-शस्त्र का समारम्भ न करें, दूसरों से समारम्भ न करवाये, समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे
जिसने सकाय सम्बन्धी समारम्भों (हिंसा के हेतुबों-उरकरणों-कुपरिणामों) को जान लिया, वही परिज्ञात पापकर्मा (हिंसा
छः जीवनिकायों की हिंसा कर्मबन्ध का हेतु हैकालिक अर्हन्तों ने समान प्ररूपणा की है ।
३४५ सर्वश भगवान् तीर्थंकर देव ने षट्जीवनिकायों (सांसारिक प्राणियों) को कर्मबन्ध के हेतु बताये हैं। जैसे कि - पृथ्वीकाय - यावत्- त्रसकाय तक जीबनिकाय है ।
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जैसे कोई व्यक्ति मुझे डण्डे से हड्डी से मुक्के से, केले से, या पत्थर से अथवा घड़े के फूटे हुए ठीकरे आदि से मारता है, अथवा चाबुक आदि से पीटता है, अथवा अंगुली दिखाकर धमकाता है, या डांटता है, अथवा तोड़न करता है, या सतातासंताप देता है, अथवा कोष करता है, बचवा पश्चिम करता है, या उपद्रव करता है, या डराता है, तो मुझे दुःख ( असता ) होता है, पाकि मेरा एक रोम भी उड़ता है तो मुझे मारने जैसा दुःख और भय का अनुभव होता है ।
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इसी तरह सभी जीव, सभी भूत, समस्त प्राणी - यावत्सर्व सत्व, उपडे याषत् – ठीकरे से मारे जाने या पीटे जाने,