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________________ २४६] परणानुयाग प्राणातिपात से बाल जीवों का पुन:-पुन: जन्म-मरण सूत्र ३४६-३४७ आयरियवयणमेयं । यह आर्यवचन है। पुवं शिकाय समयं पत्तेय पुगिछस्सामो पहले उनमें से प्रत्येक दार्शनिक को, जो जो उसका सिद्धान्त है, उसमें व्यवस्थापित कर हम पूछेगेहमो पावापा ! किभे सायं दुक्खं उताह असायं? समिता "हे दार्थ निको। प्रखरवादियो। आपको दुःख प्रिय है या परिवाणे या वि एवं बूया - अप्रिय ? यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय है, तब तो यह उत्तर प्रत्यक्षविरुद्ध होगा, यदि आप कहें कि हमें दुःख श्यि नहीं है, तो आपके द्वारा इस सम्यक् सिद्धान्त के स्वीकार किये जाने पर हम आपसे यह कहना चाहेंगे कि, "सम्वेसि पाणाणं सध्वेसि भूताणं सम्वेसि जीवाणं सबसि "जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी प्रागो, भूत, सत्ताणं असायं अपरिमिग्वाणं महकमयं दुषंति," तिमि । जीद और सत्वों को दुःख असाताकारक है, अप्रिय है, अशान्ति -आ. सु. १, अ. ४, ३. २, सु. १३६-१३६ जनक है और महा-भयंकर है।" ऐसा मैं कहता हूँ। पाणाइवाएण बालजीवाणं पुणो पुणो जम्म-मरणं- प्राणातिपात से बाल जीवों का पुनः पुनः जन्म-मरण३४७. पुढवी याक अगणी य बाट, ३४७ पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, तृण, वृक्ष, बीज और उस तण-बब-बीया य तसा य पाया। प्राणी तथा जो अण्डज हैं, जो जरायुज प्राणी हैं. जो स्वेदज जे अंडया जेय जराज पाणा, (पसीने से पैदा होने वाले) और रसज (दूध, दही आदि रसों की संसेच्या जे रसपाभिधाणा ।। विकृति से पैदा होने वाले) प्राणी हैं। इन (पूर्वोक्त) सबको सर्वश वीतरागों ने जीवनिकाय (जीवों के काय शरीर) बताये हैं। इन (पूर्वोक्त पृथ्वीकायादि प्राणियों) में सुख की इच्छा रहती है, इसे समझ लो और इस पर कुशाग्र बुद्धि से विचार करो। एताई कायार पवेवियाई, जो इन जीवनिकायों का उपमर्दन-पीड़न करके (भोशाकांक्षा एसेसु जाण पडिलेह सायं । रखते है, बे) अपनी आत्मा को दण्डित करते हैं, वे इन्हीं (पृश्वी. एतेहिं कायेहि य आयवंडे, कायादि जीवों) में विविध रूप में शीघ्र या बार-बार जाते एतेसु या विष्परियासुविति । (या उत्पन्न होते हैं । जातोवह अगुपरिपट्टमा, प्राणि-पीड़क वह जीव एकेन्द्रिय आदि जातियों में बार-बार लस - दायरेहि विणियायमेति । परिघ्रमण (जन्म-जरा, मरण आदि का अनुभव करता हुआ) से जाति-जाती बहुकूरकम्भे, करता हुआ अस और स्थावर जीवों में उत्पन्न होकर फायदण्ड कुम्वती मिजती तेण बाले । विपाकज कर्म के कारण विघात को प्राप्त होता है। वह अति क्र.रकर्मा अज्ञानी जीव बार-बार जन्म लेकर जो कर्म करता है, उसी में मरण मारण हो जाता है। आँस प लोगे अदुवा परस्था, इस लोक में अथवा परलोक में, एक जन्म में अथवा सैकड़ों सप्तग्यसो वा तह सहा वा। जन्मों में बे कर्म कर्ता को अपना फल देते हैं । संसार में परिभ्रमण संसारमावन्न परं परं ते, करते हुए वे कुशील जीव उत्कृष्ट से उत्कृष्ट दुःख भोगते हैं और घंति वेयंति य दुग्णियाई॥ आतंध्यान करके फिर कर्म बांधते हैं, और अपने दुर्नीतियुक्त -सूय. सु.१, अ.७, गा.१-४ कर्मों का फल भोगते रहते हैं। आतीके आवती लीयसि विपरामुसति अढाए अणट्टाए वा इस लोक में जितने भी कोई मनुष्य सप्रयोजन या निष्प्रयोजन एतेसुक विपरामुसति । जीवों की हिंसा करते हैं, वे उन्हीं जीवों (की योनियों में) विविध रूप में उत्पन्न होते हैं। गुरु से कामा | ततो से मारस्स अंतो। चनके लिए शब्दादि काम का त्याग करना बहुत कठिन होता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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