SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 638
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०६] चरणानुयोग बढ़े हुए आहार सम्बन्धी विधि सूत्र १२-१५ .var.wwwww "गाथा : मुसह, दो वेरापं वलयाहि", से "आयुप्मन् श्रमण ! एक पिण्ड अप स्वयं स्थाना और वो य से पडिग्गाहेन्जा, थेरा व से अपुगवेसेयवा सेस तं चैव पिण्ड श्रमणों को देना।" निग्रन्थ उम तीनों पिण्डों को ग्रहण -जाब-परिट्ठादेयम्बे लिया । कर ले और स्थविरों की गवेपणा करे। शेष वर्णन पूर्ववत् कड़ना चाहिए,-यावत्-परट दे । एवं-जाव-वसहि पिहि उवनिमज्जा , गं आउसो ! इसी प्रकार यावत्-दस गिग्डों को ग्रहण करने के लिए अप्पमा भुंजाहि. नव बेरागं वलयाहिं सेस त चक्र-छाब- कोई गृहस्थ उगनिमन्त्रग दे–“आयुष्मन् श्रमण ! इनमें से एक परिट्ठावेयध्वे सिया। -विस., उ६, सु. ४ पिण्ड आप स्वयं खाना और शेष नौ पिण्ट स्थपिरों को देना" इत्यादि शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए-यावत् -- परत दे। बहुपरियावष्ण-आहारस्स बिही बढ़े हुए आहार सम्बन्धी विधि१३. से भिक्खू था, भिक्खूणी वा बहुपरियाषणं भोयमजायं १३. भिक्षु या भिक्षुणी पाने के बाद बचे हुए अधिनः आहार को पडिगाहेत्ता साहम्मिया तस्थ वसंति संभोइया समणण्णा लेकर माधभिक, सांभोगिक, रामनोज्ञ तथा अपारिहारिक साधु अपरिहारिया अदूरगया । तेसि अणालोइया अणामतिया साध्वी जो कि निकटवर्ती रहते हों, उन्हें दिखाए बिना एवं परिवेति । माइट्ठाणं संफासे । णो एक करेज्जा । तिमन्त्रित किये बिना जो उस आहार को पर० दे, वे मायास्थान का स्पर्श करते है उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। से तमावाए तत्थ गन्छज्जा गपिछता से पुम्बामेव आलो- साधु वर्च हुए आहार को लेकर उन साधुओं के पास जाये । एज्जा वहां जाकर इस प्रकार कहे - "आउसंतो समणा । इमे मे असणे वा-जा-साहमे वा बहु- "भामुष्मन् श्रमणो | यह अशन यावत्-स्वाद्य आहार परियावणं तं मुंजह क ण, परिभाएह व गं, से नेवं बवंतं हमारे बढ़ गया है अतः इसका उपभोग करें और अन्लान्य परोववेज्जा भिक्षुओं को वितरित कर दें। इस प्रकार कहने पर कोई भिक्षु वों कहे कि"आउसंतो समया! आहारमेतं असणं वा-जब-साइमं वा “आयुष्मन् श्रमण ! यह अशन-यावत् । स्वाद लाओ हमें जापतियं जावतिय परिसद तावतियं तावति भोक्तामो दो इसमें से जितना खा पी सकेंगे उतना सा पी लेंगे अगर सारा वा पाहामो पा । सम्वमेयं परिसरति सम्वमेयं मोक्खामो वा का सारा उपभोग कर सकेंगे तो सारा ना पी सेंगे।" पाहामो बा। - आ. सु. २, अ. १, उ. ६, सु. ३६६ संभोइयाण अणिमंतिय परिवंतस्स पायश्चित्त सुतं- साम्भोगिकों को निमन्त्रित किये बिना परटने का प्राय श्चित्त सूत्र१४. जे भिक्खू मणुष्णं भोयणजाय पडिग्याहिता बहुपरियावन' १४. जो भिक्षु मनोज्ञ आहार ग्रहण करके खाने के बाद बचे हुए सिया अदूरे तत्थ साहम्मिया, संभोदया, समणुश्मा, अपरि- को वहाँ समीप में सामिक, सभोगिक, समनोज्ञ, अपारिहारिक हारिया संता परिवसंति ते अणापुच्छिय अनिमंतिय परिट्ठ- भिक्षुक हों, उन्हें पूछे बिना, निमन्त्रण दिये बिना परटता है, बेई, परिठ्ठवतं वा साइन्जद । परठवाता है था परने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारहाणं उग्ध इयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.२, सु. ४५ आता है। गहियाहारे मायाकरण-णिसे हो गृहीत आहार में माया करने का निषेध .. १५. से एगइओ मणुषणं भोयणजातं पडिगाहेता पंतेण मोयणेण १५. कोई एक भिक्षु मरस स्त्रादिष्ट आहार प्राप्त करके उसे पलिन्छाएति 'मामेतं चाइयं संत वर्ण सयमादिए, तं नीरस तुच्छ आहार से ढक कर छिपा देता है, इस भावना से (जहा) आयरिए वा-राव-गणावच्छेइए वा । णो खलु मे कि "आचार्य-यावत् - गणावच्छेदक मेरे इस आहार को कस्सह किचि वि वातवं सिया।" माइहाणं संफासे । णो दिखाने पर स्वयं ही लेंगे। किन्तु मुझे इसमें से किसी को कुछ एवं करेजा। भी नहीं देना है।" ऐसा करने वाला साधु-मायास्थान का स्पर्श करता है । साधु को ऐसा छल-कपट नहीं करना चाहिए।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy