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________________ ११-१२ स्थविरों के लिए संयुक्त गृहीत भाहार के परिभोग और पररने की विधि चारित्राचार : एषगा ममिति [६०५ जिस तो समणा । इमे में असणं का-जाब-साइम या सम्ब- "आयुष्मान् श्रमण! यह अयन -- यावत् स्वाच आहार जणाए णिसट्टे, तं भुजह व ण, परिभाएह व नं।" मैं आप सब जगों के लिए दे रहा हूँ। आप इस प्रहार का उपभोग करें या परस्पर बांट लें।" तं गति पडिगाहेत्ता, सुसिणीओ उबेहेज्जा-सवियाई "एवं इरा पर यदि कोई साधु उस आहार को चुपचाप लेकर वह ममामेव सिया" माइट्ठाणं सफासे ३ गो एवं करेज्जा। विचार करे कि "यह आहार भुसे दिया है. इसलिए मेरा ही हैं" ऐसा सोचना मायास्थान का सेवन करना है। भिक्ष को ऐसा नहीं करना चाहिए। से तमायाए तस्थ गच्छेज्जा, गपिछत्ता से पुण्यामेव आलो- साधु उस आहार को लेकर श्रमण आदि के पास जाये और एक्जा -- __ वहाँ जाकर पहले से ही उन्हे कई 'उसंतो समणा! हमे थे असणे था-जाब-साइम वा "हे आयुष्मान् शमगो! यह आनन - याचत्... वाद्य गृहस्थ सव्वजगाए णिसङ्के, सं भुजह व णं परिभाएह वणं ।" ने हम रावके लिए दिया है, अत: इसका उपभोग करें या विभा जन कर ?" से णं मेकं वदंतं परो बडेजा- उसंतो समणा ! तुमं माधु के ऐमा कहने पर त्रे अन्य भितु उसे कहें किचैव पं परिमाएहि ।" "आयुष्मान् श्रमण ! आर ही बांट दें"। से तत्थ परिमाएमाणे णो अपणो खवं खलु डायं डायं उसढं तो उस आहार बा विभाजन करता हुआ यह माधु अपने उसलं. रसियं-रसियं. मगुण्ण-मणुष्ण, गिलं-णिवं, लुक्वं- लिए अनुकूल, अच्छा, बहुमुल्य, स्वादिष्ट. मनोज्ञ, स्निग्ध व सक्ष लुक्वं । से तत्य अमुच्छिए, अगि, अगबिए, अणजमोक्वणे आहार अलग न रखे किन्नु सम आहार में अगृच्छिन, अगढ, बलुसममेव परिमाएज्जा। निरपेक्ष एवं अनासक्त होकर सबके लिए समान विभाग करे।। से णं परिभाएमाणं परोववेज्जा-'आउसंतो समणा [ मा यदि विभाग करते समय यमणादि कहें-“हे आयुष्मन् णं तुमं परिभाएहि सम्वे वेगतिया भोक्खामो वा पाहामो घमण ! आप विभाजन न करें। आप और हम एकत्रित होकर यह आहार खा पी लें। से तत्य मुंजमाणे णो अपणो खरं खा-जाव-अमच्छिए तब वह साधु उनके साथ आहार करता हुआ मरस-मल -जाव-अणमोक्षपणे बहुसममेव मुंजेज्ज वा पाएज्ज वा। स्वयं न खात्र -यावत् - अमूच्छित -यावत्-~-अनासक्त भाव रो -आ सु. २, अ. १, 3. ५, सु. ३५.७ (क) ममान ही खावे या पीये। थविर संजुत्त गहिय पिंड उपभोग-परिठावण विही य ... स्थविरों के लिए संयुक्त गृहीत आहार के परिभोग और परठने की विधि :१२. निगथं च गं गाहाषाकुल पिटवायपडियाए अणुपवित् १२. गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने के लिए) पसिष्ट केह वोहि पिहि उनिमंतेजा निर्ग्रन्थ को कोई दो पिण्ड (खाद्य पदार्थ) ग्रहण करने के लिए उपानिमन्त्रण करे"एगं आजसो ! अल्पणा मुंजाहि, एगं घेराणं वलयाहि से आयुष्मन श्रगण. एका पिण्ट आप स्वयं लाना और दूसरा यत पिड पडिगाहेज्जा, पेरा य से अणगवेसियनवा सिया, पिण्ड स्थविर मुनियों को देना।" गिग्रन्थ उन दोनों पिन्डों को जत्येव अणगवेसमाणे धेरे पासिज्जा तत्कष्णप्पदाय सिया ग्रहण कर ले और स्थपिरों की गवेषणा करे, गवेषणा करने पर नो चैव पं अगवेसमाणे धेरे पासिज्जा तनो अप्पणा उन स्थावर मुनियों को नहीं देने, वहीं वह पिण्ड उन्हें दे दे। मुंजेज्जा, नो अन्न सिं दाबए, एगते अण्णाषाए अचित्त बहु. यदि गवेषणा करने पर भी स्थविर मुनि कहीं न दिखाई दे तो फामुए थंडिले पडिलेहेता, पमन्जिता परिवायचे सिया। वह पिण्ड न खाये और न ही किसी दूसरे थमण को दे, किन्तु एकान्त, अनापात (जहाँ आवागमन न हो) अचित्त और प्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिम्लखन एवं प्रमार्जन करके परठ दे। निग्यथं च णं गाहावइफुलं पिडवायमाजियाए अणुपविछ कह गृहस्थ के वर में आहार ग्रहण करने के विचार से प्रविष्ट तिहि पिडेहि उवनिमंतेजा निर्गन्ध को काई तीन पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमन्त्रण करें
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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