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________________ I सूत्र १६-१८ से समाधाए सत्य गच्छेजा गछतामेव नए हत्येपडिमा कट्टु 'इमं खलु इमं खलु सि आलोएज्जा । मोनि .. आ. सु. २, अ. १, उ.१०, सु. ४८० आहार उभोगे मावाकरण विलेो १६. सिया एगइओ ल विधिह पाण भोयणं । भोच्या विरसमाहरे ॥ आहार का उपभोग करने में माया करने का निषेध जाणंतु ता इमे समणा, आयपट्ठी अयं सुणो । संतुट्ठो सेवई पंतं लहवितो मुतोसओ ॥ गोरस आहार-परिणयाच्छ १७. मुंज, २ भोषणा परिवाहिता परिवेश, पति या साइन् । पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए । बहु पवई पावं, मायासत्वं च कुors ॥ - दस. अ. ५ उगा. ३३-३५ सेवा वा गावकुतं पिण्डवापडिया ए अणुविणतरं भोपाल भोच्चा, मिमि परिवेति । मातिठाणं संफासे गो एवं करेज्जा सुमि वा बुभि वा, सख्यं भुजे न छहुए आ. सु. २, ब. १, १, सु. २९४ तं सेवमाणे आवजह मालियं परिहाराणं उग्धा इयं । नि. उ. २, सु. ४४ हिय लोणस्स परिभोगण-परिवण-विही १८. से भिक्खुवा, भिक्खुणी वा गाहाबहकुल पिंडवस्यपडियाए अणुविसमा सिया से परो अनि तो पडिग बिलंवा लोणं उत्भियं वा लोणं परिभासा नीदुदु दा । तपगारं पहिं परह्त्यंसि वा परासिया जामाजा से यह पहिए लिया बनाए से तमायाय तत्य गन्छिन्जा, गच्छिता पुथ्वामेव आलोइम्जा । दस. अ. ६. गा. १७ । चारित्राचार एषणा समिति [२०७ वह साधु उस आहार को लेकर आचार्य के पास जाये और वहाँ जाकर पहले से ही पात्र को करतल में लेकर " यह अमुक वस्तु है, यह अमुक वस्तु है" इस प्रकार एक-एक पदार्थ उन्हें बता दे । किन्तु कोई भी पदार्थ न छिपाये । आहार का उपभोग करने में माया करने का निषेध १६. कदाचित् कोई एक मुत्ति विविध प्रकार के पान और भोजन पाकर कहीं एकान्त में बैठ श्रेष्ठ-श्रेष्ठ सा लेता है, विवर्ण और विरस को स्थान पर लाता है (इस विचार से कि) "पे श्रमण मुझे यों जाने कि यह मुनि बड़ा आत्मार्थी है, लाभालाभ में समभाव रखने वाला है. सारहीन आहार का सेवन करता है, रूक्ष आहार करने वाला है, और जिस किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट होने वाला है।" वह पूजा का अर्थी, यश का कामी और मान सम्मान की कामना करने वाला मुनि बहुत पाप का अर्जन करता है और माया शल्य का आचरण करता है । जो भिक्षु या भिक्षुणी भोजन को ग्रहण करके मन के अनु सेता है और मन के प्रतिकूल परठ देता है, बहू माया स्थान का स्पर्श करता है । उसे ऐसा नहीं करना चाहिये | मन के अनुकूल या प्रतिकूल जैसा भी आहार प्राप्त हो, साधु उसका समभावपूर्वक उपयोग करे, उसमें से किचित् भी नहीं पर नीरस आहार परठने का प्रायश्चित्त सूत्र१०. जी के घर से विविधा आहार मार उनमें से मन के अनुकूल आहार को खाता है और मन के प्रतिकूल आहार को पता है, परठवाता है, या परठने वाले का अनुमोदन करता है । उसे मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्राय) आता है । गृहीत लवण के परिभोग और परिष्ठापन की विधि१०. भिक्षु या भिक्षुणी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करे यहाँ कदाचित गृहस्व पात्र में बनाया हुआ नमक या अन्य अचित्त नमक लाकर दे उस नमक के बर्तन की गृहस्थ के हाथ में या पात्र में देखकर आसुक जानकर - यावत् ग्रहण न करे । १ से एसइओ अण्णयर भोयणजायं पडिस्गाता भयं भयं भोच्या दिवन विरसमाहरइ, माइद्वाणं संफासे, गो एवं करिज्जा | - आ. सु. २, अ. १, उ. १०, सु. ४०१ कदाचित् उक्त प्रकार का नमक बिना जाने ले लिया हो और अधिक दूर जाने के पहले ही मालूम पड़ जाये तो स लव को लेकर गृहस्थ के वहाँ जाकर पूछे
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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