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________________ सिद्धस्थान का स्वरूप दर्शनाचार [EE एए नरिश्ववसमा, निक्खन्ता जिणसासणे । ये राजाओं में वृषभ के समान महान् थे। इन्होंने अपनेपुते रज्जे वित्ताणं, सामणे पज्जवद्विया ॥ अपने पुत्र को राज्य में स्थापित कर श्रामण्य धर्म स्वीकार किया। सोवोररायवसभो , चेच्चा रज्ज भुगो चरे। सोवीर राजाओं में वृषभ के समान महान उद्रायण राजा उद्दायको परखइमओ, पत्तो गमगत्तरं ॥ ने राज्य को छोड़कर प्रवज्या ली, मुनि-धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की। तहेव कासोराया, वि सेओ-सच्चपरक्कमे। इसी प्रकार श्रेय और सत्य में पराक्रमशील काशीराज ने कामभोगे परिचज्ज, पहणे कम्ममहावणं । काम-भोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महाबन का नाश किया । तहेव विजओ राया, अष्टाकित्ति पवए। इसी प्रकार अमरकीति महान् यशस्वी विजय राजा ने रनं तु गुणसमिवं, पहित महाजसो॥ गुण-समृद्ध राज्य को छोड़कर प्रयज्या ली । तहेवागं तवं किमचा, अश्वविखतण वेपसा । इसी प्रकार अनाकुल दित्त से उन तपश्चर्या करके राजर्षि महायलो रायरिसी, अहाय सिरसा सिरं ।। महाबस ने शिर देकर शिर प्राप्त किया- अर्थात् अहंकार का विसर्जन कर सिद्धिरूप उच्च पद प्राप्त किया। अथवा सिद्धिरूप श्री प्राप्त की। कहं धोरो अहेमहि, उम्मत्तो व महि घरे ? इन भरत आदि शूर और दृढ़ पराक्रमी राजाओं ने जिनएए विसेसमादाय, सुरा बचपरककमा ।। शासन में विशेषता देखकर ही उसे स्वीकार किया था। अतः अहेतुबादों से प्रेरित होकर अब कोई कैसे उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर विचरण करे ? अस्वस्तनिशाणखमा , सच्चा मे भासिया वई। __मैंने यह अत्यन्त निदानक्षम---युक्तिसंगत सत्य-वाणी कही अतरिसु तरन्तेगे, तरिस्सन्ति अगागया ॥ है। इसे स्वीकार कर अनेक जीव अतीत में संसार-समुद्र से पार हुए हैं. वर्तमान में पार हो रहे हैं और भविष्य में पार होंगे। कह धीरे अहेकाँह, अत्ताणं परियावसे ? और साधक एकान्तवादी अहेतुवादों में अपने आप को सम्वसंगविनिम्मुक्के , सिद्धे हवइ नौरए॥ कैसे लगाएँ ? जो सभी संगों से मुक्त है, वही नीरज अर्थात् -उत्त. अ. १८, गा, ३२-५४ कर्मरज से रहित होकर सिद्ध होता है। सिबवाण सरूवं सिद्धस्थान का स्वरूप२६७. इह आगति गति परिणाय अच्चेति जातिमरणस्स बट्टमार्ग २६७. साधक जीवों की गति-आगति (संसार परिभ्रमण) के कारणों का परिज्ञान करके व्याख्यात-रत मुनि जन्म-मरण के वृत्त मार्ग को पार कर जाता है। सम्वे सरा नियन्ति, (उन सिद्वात्मा का स्वरूप या अवस्था बताने के लिए) सभी तरका जत्व ग विज्ञप्ति, स्वर लौट जाते हैं, वहाँ कोई तर्क नहीं है, वहाँ मति भी प्रवेश मती तत्य ण गाहिया। नहीं कर पाती। वहां (मोक्ष में) वह समस्त कर्मफल से रहित ओए अप्पतिट्राणस्त खेतणे । ओजरूप शरीररूप प्रतिष्ठान-आधार से रहित और क्षेत्रज्ञ ही है। से ण दोहे, ण हस्से, ग वर्ल्ड', ण तसे, ग घरसे, वह न दीर्घ है, न हस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न ण परिमंडले, चतुष्कोण है, न परिमण्डल है। म किण्हे, ग णीसे, लोहिले, ण हालिद्दे, प मुक्किले, ' वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पोला है और न शुक्ल है। बक्सातरले।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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