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________________ सूत्र ८५-८६ wwww सेवा विसोहि वा हित्य परिषद उपस्सस्स बोसाई गृहस्थ ८५. से मिक् वाखूणी या उच्चाश्वासवणे उदबाहिज्ज मा रातो या बियाले वा गाहावतिकुलस्स दुबाराहं भवं गुणेज्जा, तेणो य तस्संधिवारी अणुपविसेज्जा, तस्स मिक्स णो कम्पति एवं ए तस्स हवं, अण्णस्स हवं अयं सेणे, अयं उबश्वरए, अर्थ हंता अर्थ एवमामी" तर मह प्रतिवद्ध उपाय के दोष - - आ. सु. २. अ. २. उ. ३, सु. ४५४ स्थान, शव्या एवं स्वाध्याय न करें । ग्रहस्थ प्रतिबद्ध उपाय के दोप "अयं तेथे पविसति वा णो या पविसति उपल्लियति वा गोवा उवल्लियति, आपतति वा जो त्रा नापतति, वयइ वा णो वा वयइ तेह असेचं लेणमिति कति । पुष्पोद्वारा उपनेता ए णो ठाणं वा, सेज्जं वा जिसीहियं वा चंतेा । -आ. सु. २, अ. २. उ. २, सु. ४३० सुन उवस्सयस्स परूवणा८६. से यणो सुलमे फासुए छ असलज्जे, णो य खलु सुखे हमेहि पाहि तं जहा- छावणतो लेवणतो संबार दुवार विहाणतो पडवासणाओ । सेव परियारले हारते, निमीहियारसे, सेजा संचार-पिंडवासणारते, संति भिक्खुणी एवममवाणो शिवापविमायमाणा माहिता । चारित्राचार एषणा समिति [६४३ मतगतिया पाडिया या भवति एवं स पृथ्वा भवति, परिभाइधपुध्या मयति परिमुतपुरवा भवति, पराभव । उचित नहीं है। यह जानकर इस प्रकार के उपाश्रय में साधु - ८५ व भिक्षु या भिक्षुणी रात में या विकाल में मल-मूत्रादि की बाधा होने पर गृहस्थ के घर का सारभाग खोलेगा, उस समय नौकर देखने वाला कोई चोर घर में प्रविष्ट हो जाएगा तो उस समय साधु को ऐसे कहना कल्पनीय नहीं है कि "यह चोर प्रवेश कर रही है या प्रवेश नहीं कर रहा है. यह छिप रहा है या नहीं छिप रहा है, नीचे कूद रहा है या नहीं कूदता है जा रहा है या नहीं जा रहा है, इसने चुराया है या किसी दूसरे ने चुराया है। उसका धन चुराया है अथवा दूसरे का धन चुराया है । यही चोर है, यह उसका उपचारक (साथी) है। यह घातक है, इसी ने यहाँ वह बनाया है" और कुछ भी न कहने पर जो वास्तव में चोर नहीं है उस तपस्वी साधु पर चोट होने की शंका होती है। अतः तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है - पावत्—उपदेश दिया है कि साधु ऐसे उपा श्रम में स्थान, शय्या एवं स्वाध्याव न करे । शुद्ध उपाश्रय की प्ररूपणा ८६. प्राशुक, उंछ, एपणीय उपाश्रय सुलभ नहीं है ओर न हो इन सावध कर्मों (पापयुक्त क्रियाओं) के कारण उपाश्रय शुद्ध निर्दोष मिलता है, जैसे कि कहीं साधु के निमित्त उपाश्रय का छप्पर छाने से या छत डालने से कहीं उसे लीपने पोतने से, कहीं संस्तारक भूमि सम करने से कहीं उसे बन्द करने के लिए द्वार लगाने से, कहीं आहार की एकणा के कारण से । कई साधु विहार चर्या परायण होते हैं. कई कायोत्सर्ग करने वाले होते हैं. कई स्वाध्यायरत होते हैं, कई साधु या संस्तारकः एवं पिण्ठपात (आहार पानी) की गवेषणा में रत रहते हैं । तथा भिक्षु सरल होते हैं, मोक्ष का पथ स्वीकार किये हुए होते हैं, एवं निष्कपट साधु साया नहीं करने वाले होते हैं वे शय्या के विषय में इस प्रकार कहते हैं - "कई मकान गृहस्य के खाली पड़े रहते हैं, स्थ के मेहमान आदि के लिये रखे हुये होते हैं। बारे में प्राप्त हुए होते हैं, कई मकान गुहस्य के समय समय पर काम में लिये जाने वाले होते हैं, कोई मकान गृहस्थ के पूर्ण रूप से अनुपयुक्त होते हैं या दान किये हुए होते हैं। ( इस प्रकार के मकान गृहस्थ के लिये बने हुए होने से साधु को कल्पनीय होते हैं) कई मकान गृहकई मकान बॅट
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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