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________________ १४४] चरणानुयोग प० एवं बियागरेमाणे समिया वियागरे ? - उ०- हंता भवति । - आ. सु. २, अ. २, ३, सु. ४४३ अभिवर्ण साम्य आगमण वसहि जिसेहो ८७. मे आगंतारे वा आरामागारे या वा परिया वा अभिहम्मद ओस माहिणी ओतेश्या erture सानिक के आगमन को शया का निषेध उवद्वान हिरिया स - आ. सु. २, अ. २, उ. २, सु. ४३२ कालाकिंत किरिया सरुवं८८. से आगंतारेसु वा जाव-परिया वसहेसु वर जे भयंतारी उडु नद्भियं वा वासाषासियं वा कप्पं उधातिथित्ता तथैव भुज्जो मुज्जो संवसंति मयमाउसो । कालातिक्त किरिया वि भवति । - आ. सु. २, म. २, उ. २, सु. ४३३ - -- परवा जे मा द्वियं वा वासवासिया कप्पं ज्वातिपावित्तर तं दुगुणा गुण अपरिहरा तत्येष ज्योति माउसो | उक्द्वाणकिरिया यावि भवति । - एग से पुणरागमण कालमेरा ६०. सं याचि परं पमाणं दीयं च वासं न तहि वसेज्जा । सुतस्स मग्गेग चरेज्ज भिक्खू, सुत्तस्त अत्थो जह आणवेद । दम. चू. २, गा. ११ अणभिक्कंत किरया सहवं ६१. इह खलु पाई वा जाव-उदीणं वा संगतिया सढा भवंति जावरोमा बहने समय-माहन अतिहि-शिक्षण aणीमए समुद्दिस्स तत्थ लक्ष्य अगारोहि अगाराई चेतिताई भवंति तं जहा आएसणाणि वा जात्र भवणमित्राणि वा । भतारोहणारा आएगाण वाजायचा बा तेहि अगोषतमाणेहि ओषयति अपमाउसो ! अभिवर्क तकिरिया यानि भवति । - आ. सु. २, अ. २, उ. २, सु. ४३६ प्र गृहस्यों को इस तरह उपाश्रय संबंधी कथन करने वाला क्या सम्यक् कथन करता है ? उ०- हाँ सम्यक् कथन करता है, अर्थात् इस तरह सही स्वरूप समझाना उचित है । -आ. सु. २, अ. २, उ. २, सु. ४३४ शय्या उपस्थान ऋिश दोष से युक्त हो जाती है । बारंबार साथमिक के आगमन कीया का निषेध उद्यान में निर्मित विवाहस्थ के घरो में या तापसों के महों में जहाँ सामिका बार-बार आते-जाते (ठहरते हों, वहाँ निर्ग्रन्थ साधु न ठहरे। ९०-९१ कालातियन्त क्रिया का स्वरूप ८८. हे आयुष्मन् ! जिन पत्रिकाला यावत्-मठों में श्रमण भगवन्तों ने ऋतुबद्ध मासकल्प (शेषकाल ) या वर्षावास कल्प (चातुर्मास ) बिताया है, उन्हों स्थानों में अगर वे बिना कारण निरुतर निवास करते हों तो उनकी वह शय्या ( वसतिस्थान ) कालातिक्रान्त किया दोष से युक्त हो जाती है । - ! उपस्थान क्रिया का स्वरूप८१.चित्राला पावत् मों में, जिन साधु भगवन्तों ने ऋतुबद्ध मास कल्प या वर्षावास कल्प बिताया है, उससे दुगुना मुना मदन का समय अपन बिताए बिना ही स्थानों में ठहर जाते हैं तो उनको दह भिक्षु के एक क्षेत्र में पुनः आने की काल मर्यादा ६०. भिक्षु ने जहाँ वर्षा त्रास किया है वहाँ उत्कृष्ट एक वर्ष तक पुनः आकर न रहे। किंतु (दुगुणा काल व्यतीत करना आदि ) सूत्रोक्त विधि का सूत्र का अर्थ (भाव) जिस तरह आज्ञा दे उसी प्रकार आचरण करें । अनभिन्त क्रिया का स्वरूप - ९१. हे आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्व यावत् उत्तर दिशा में का होते हैं, या अभिप्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण, वनीवक आदि के उद्देश्य से गृहस्वों ने जगह है, जैसे कोह शाला - यावत् - भूमिगह आदि । -- जो भ्रमण ऐसे लोहकारशाला बावत् भूमिगृहों में आकर पहले-पहल ठहरते हैं, तो वह प्रय्या अनािन्त क्रिया माजी है. अल्पनीय है।) -
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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