SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 677
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२-६४ ard किया का स्वरूप वज्जकिरिया सरूवं २. इह खलु पाईणं वा जाव उदीर्ण वा संतेगइया सहा नवंति तं जहा - गाहाबती वा जाव-कम्मकरीलो या, तेसि च णं एवं बुराश्वं भवति जे हमे भवंति समया भगवंतो सीलता जाव जवरत मेगाओ धम्माल पोतु एवेति भवारा कति आधारुम्मिए उवस्सए वत्थए से ज्जाणिमाणि अहं अप्पो समाए बेतिया भवंति से जहा एखपाणिक मनगिहाणि वा सथ्याणि ताणि समणाणं णिसिरामो -अनिवाई वयं पच्छावि अप्पणो सट्टाए चेलेस्सामो तं जहाआएसणाणि वा जाव - भवगिहाणि वा । 7 एतप्पा जिग्घोषं सच्चा जिसम्म जे भयंतारी तहमारा आसाणा उरात इतरा तितरेहि पाहुडेह वट्टति अथमाउसो । वज्जकिरिया यांवि भवति । - आ. सु. २. अ. २, उ. २. सु. ४३७ पारिवाचार एवा समिति शिया का स्वरूप ६२. इस संसार में पूर्व यावत् - उत्तर दिशा में कई श्रद्धालु होते हैं जैसे कि गृहस्वामी - यावत्-नौकरानियाँ उन्हें पहले से ही यह ज्ञात होता है कि " म भगवन्त शीलवान यावत् मैथुनधर्म के स्थानी होते है इनके लिए दोष से युक्त उप श्रय में निवास करना कल्पनीय नहीं है। अतः ये जो हमारे अपने लिए हुए हैं जैसे कि लोकराजा यावत्भवनगृह से सब मकान हम इन अभणों को दे देंगे। और हम अपने प्रयोजन के लिए बाद में दूसरे लोहकारशाला - पावत्भवनगृह आदि मकान बना लेंगे." [ ६४२ गृहस्थों का इस प्रकार का वार्ताला सुनकर तथा समझकर भी योनि प्रकार के सहकाराला यावत्भवनगृह में आकर ठहरते हैं वहाँ ठहर कर के अन्यान्य छोटे बड़े घरों का उपयोग करते हैं, तो हे आयुष्मन् श्रमशो ! उनके लिये वह या क्रिया वाली होती है । महावक्शकिरिया सख्यं महावर्ण्यक्रिया का स्वरूप ६३. इस संसार में पूर्व पावत्—उसर दिशा में कई श्रद्धालु से होते हैं. पावन से प्रेरित होकर वे बहुत २३. खलु पाई वा जाब-जवीणं वा संतेगलिया सड्ढा भवंति जामा महणण-पण पराभव समुत्थिता अगारी नारा बेतिया मंतिह्मण पावत्वारों को गिनकर उनके उसे जहा आणि माजा भयाण वा यहाँ-वहाँ लोहाराला पावत् भूमिगृह बननाते हैं। जो नि साधु उस प्रकार के लोहकारशाला यावत् में आकर रहते है, यहाँ रहकर वे अन्याय छोटे-बड़े घरों का उपयोग करते हैं तो हे आयुष्मन् ! वह शस्या उनके जेता तहय्याराहं आएसणाणि वा जाव-भवमाणि का उतारेपालि भूमि जenraat | महावज्जकिरिया यावि भवति । - आ. सु. २. अ. २, उ. २, सु. ४३८ लिए महावज्यं क्रिया से युक्त हो जाती है । सावजकिरिया सवं ६४. खलु पाई वा जात्र उदीर्ण वा संगतिया सड्डा अवंति ये मग समुह सत्य हस्थ अमारी अगाराई तिला जहा आसनगि वा जान वणगिहाणि वा. जेता हत्याराई वातामिवाभहाणि या उपागच्छति उदागति इतराइतरेह पहिति अमाउसो | सावज्जकिरिया यादि भवंति । - आ. सु. २, अ. २. उ. २, सु. ४३९ दोष से युक्त हो जाती है । महासावज्ज किरिया सरू१२. वाजवणं या सगतिया सढा भवंति जायमाह एवं समासमुद्दिस तत्तत्य - सावय क्रिया का स्वरूप १४, इस संसार में पूर्व पावत् उत्तर दिशा में वई श्रद्धालु होते है- असे प्रेरित होकर वे अनेक प्रकार के के उद्देश्य से जहाँ तहाँ लोहकारमानापावत्भूमिगृह बनवाते है । जो निर्मन्थ साधु उस प्रकार के लोहकारशाला - यावत्भूमिगृह में आकर ठहरते हैं तथा अन्यान्य छोटे बड़े गृहों का उपयोग करते हैं, हे आयुष्यन् ! उनके लिए वह अम्मा सा - महासविच किया का स्वरूप ६५. इस संसार में पूर्व पावत्—उत्तर दिशा में कई यक्ति है यावत् अभिरुनि से प्रेरित होकर उन्होंने एक ही
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy