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________________ सन २२१-२३४ निववे का फल दर्शनाचार १५ उ.--गोयमा! संवेगे निव्वेए-जाव-मारणंतिय-अहियासणया- उ-हे आयुष्मन् थमण गौतम ! संवेग, निर्वेद आदि एए गं सिद्धि-पज्जवसागफला पन्नत्ता समणाजसो। -- यावत्---मारणान्तिक अध्यासनला इन सभी पदों का अन्तिम -वि, श, १७, 3.३, सु. २२ फल सिद्धि (मुक्ति) है। पिध्वेयफलं निवेद का फल२९. -निदेएम ने कामगा? २३०, प्र...भन्ते ! निवेद (भव-वैराग्य) से जीन क्या प्राप्त करता है? उ-निस्वेएणं विश्व-माणुसतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निम्वेयं उ०—निवेद से वह देव, मनुष्य और हिर्यच सम्बन्धी काम हवमागच्छह । सत्यविसएस विरज्जह, सत्यविसएसु भोगों में ग्लानि को प्राप्त होता है। राब विषत्रों से विरक्त हो विरज्जमाणे आरम्भपरिचायं करेइ । आरम्भपरिच्चायं जाता है। सव विषयों से विरक्त होता हुआ वह आरम्भ और करमाणे संसारमग्गं वोज्छिन्दह सिद्धिमागे पडिबन्ने य परिग्रह का परित्याग करता है। आरम्भ और परिग्रह का परिभष। त्याग करता हुआ संसार-मार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धि -उत्त. अ. २६, सु. ४ मार्ग को प्राप्त होता है। सम्म'सणिस्स विणाणं सम्यक्त्वी का विज्ञान-- २३१. साम ति पासत, ते मोणं ति यासह । २१. जो सम्यक्त्व को समझता है, वह मुनि-जीवन को समझता जं मोणं ति पासह, तं सम्म ति पासह ॥ है। ओ मुनि-जीवन को समहाला है, वह सम्यक्त्व को समझता है । न इमं सक्कं सिद्धिलेहि आदिमाजमाणेहि गुणसाएहिं बक- इस (मम्यक्त्व या मुनि जीवन) का मम्यक् अनुष्ज्ञान शिथिल, समायरेहि पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं । स्नेही, आसक्त, कुटिल, प्रमन और गृही जनों से शक्य नहीं है। सम्मत्तदंसो मुणी सम्यक्त्वदर्शी मुनि-. २३२. मुणो मोगं समायाय धुणे कम्मसरीगं । २३२, मुनि मौन-(सम्यक्त्व या मुनि जीवन) को स्वीकार करके कर्मरूपारीर को धुने । पंतं लहं सेवंति, बोरा सम्मत्त सिषो। मम्यग्दर्शी वीर तुच्छ एवं रूक्ष आहार का संबन करते हैं। एस ओहंतरे मुगी तिपणे मुत्ते विरए वियाहिए-त्ति बेमि ॥ ऐसा सम्यग्दी मुनि भवसागर तिरनेवाला है और वही —आ. थु. १, अ. ५, उ. ३, सु. १६१ तीर्ण, मुक्त, विरत कहा गया है । ऐसा मैं कहता हूँ। सम्मत्तसो न करेइ पावं सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता१३३, आईच धुचि हज्ज पासे, २३६. हे आर्य ! जन्म जरा मरण के दुःखों को देख, प्राणियों के भूहि जाणे पडिलेड सायं । सुम्य-दृग्य के साथ तू तेरे सुख-दुख की तुलना कर और इसके लिए सम्हातिविज्जे परमति णच्चा, तू मोश्च के स्वरूप को जानकर अति विद्वान बन । क्योंकि मोक्षसम्मतबंसी न करे पार्य। मार्ग जानकर जो सम्यक्त्वदर्शी हुआ है वह पाप नहीं करता है। ___ आ. ध्रु. १, अ.५, उ.२,. ११२ कुम्म विट्ठन्तं कूर्म-दृष्टान्त२३४. एवं पेगे महावीरा विष्परक्कमति । २३४, कुछ (बिरले लघुकर्मा) महान वीर पुरुष इस प्रकार के शान के आख्यान (उपदेश) को सुनकर (संयम में) पराक्रम भी करते हैं। पासह ! एगऽवसीयमाणे अणत्तपण्णे । (किन्तु) उन्हें देखो, जो आत्मप्रज्ञा से शून्य है, इसलिए (संवम में) विषाद पाते हैं. (उनकी करुणदशा को इस प्रकार समझो)।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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