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परणानुयोग
सम्यक्रषी की चार प्रकार की श्रया
सूत्र २३४-२३५
से बेमि-- से जहा वि कुम्मे हरए विणिविटुचित-एक्छण्ण- मैं कहता हूँ -जैसे एक कछुआ है, उसका चित्त (एक) पलासे, उम्मूगग से णो लभति ।
महानद (सरोवर) में लगा हुआ है। वह सरोवर शैवाल और कमल के पत्तों से उका हुआ है। वह कत्रा उन्मुक्त आकाश को
देखने के लिए (कहीं) छिद्र को भी नहीं पा रहा है। हक्यु चिटुन्तं-भजगा इव संनियेस नो बयंति,
वृक्ष दृष्टान्त-जैसे वृक्ष (विविध शीत, ताप, तूफान तथा एवं पेगे अगरवेहि कुलेहि जाता। प्रहारों को सहते हुए भी) अपने स्थान को नहीं छोड़ते. वैसे ही
कुछ लोग हैं जो (अनेक सांगारिक कष्ट, यातना, दुःख आदि
बार-बार पाते हुए भी) गृहवास को नहीं छोड़ते। कवेहि सत्ता मसुर्ण थणंति,
इसी प्रकार कई (गुरुकर्मा) लोग अनेक प्रकार (दरिद, णिदाणतो ते ण लभंति मोक्वं ।
मम्मत, मध्यवित्त आदि) कुलों में जन्म लेते हैं, (धर्माचरण के -आ. शु. १,अ. ६, उ.१, .१७८ योग्य भी होते हैं) किन्तु रूपादि विषयों में आसक्त होकर (अनेक
प्रकार के शारीरिक-मानसिक दुःखों से, उपद्रवों से और भयंकर रोगों से आक्रान्त होने पर) करुण विलाप करते है। (नकिन इस पर भी वे दुःखों के आवास रूप गृहवास को नहीं छोड़ते) ऐस
व्यक्ति दुःस्त्रों के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते। सम्मद्दसणिस्स चाठियहा सद्दहणा
सम्यक्त्वी की चार प्रकार की श्रद्धा२३५. परमस्थसंश्वो वा,
२३५. (१) परमार्थ तत्व का बाराबार गुणगान करना, सुविठ्ठपरमत्थसेवणा वा वि,
(२) जिन महापुरुषों ने परमार्थ को भलीभांति देखा है
उनकी सेवा शुश्रूषा करना, बावनकुदसणवज्जवणा य,
(३) जो सम्यक्त्व से सन्मार्ग से पतित हो गये हैं तथा
(८) जो कुदर्शनी-असत्य दर्शन में विश्वास रखते हैं उनकी
संगति न करना, एए सम्मत्तसहहणा ।
___ यह सम्यक्त्व श्रद्धा है अर्थात् इन उक्त गुणों से सम्यक्त्व की --उत्त. अ. २८, गा.२८ श्रद्धा प्रकट होती है।
सम्यक्त्व के सड़सठ भेदचउ' सद्दहण-तिलि गं, इस-विणय-ति-सुद्धि-पंच-गयदोस । अटु-पभावण-भूसण, लक्वण - पंचविह - संजुत ।। छब्बिह-जयणागारं, छब्भावणभावियं च छट्ठाणं । इय सत्तसट्ठि-दसण - भेज - बिसुदं तु सम्मत्तं ।। ये सड़सठ भेद क्रमशः इस प्रकार हैंसम्यक्त्व के तीन लिंग (चिन्ह) १. सुस्सूसधम्मराओ, २. गुरुदेवाणं जहा समाहिए । ३. बेयावावे नियमो, सम्मदिद्विस्स लिगाई ।। सम्यक्त्व के दस विनय १. अरिहंत, २. सिद्ध, ३. चेइए, ४. सुए. ५. अधम्मे, ६. असाहु वग्गे य । ७. आयरिय, ८. उवज्शाए. ६. पवयणे, १०. दसणे विणतो ।। सम्यक्त्ती की तीन शुद्धि १. मुत्तूण जिणं, २. मुत्तूण जिणमयं, ३. जिगमयदिए मोत्त । संसारकत्तबार, वितिज्जतं जग सेस ।। सम्यक्त्व के पनि दूषण गंका १, काख, २, विगिच्छा, ३. गसंस, ४, तह संथयो, ५, कुलिंगीमु । सम्मत्तस्सइशारा, परिहरिअन्दा पयत्रोणं ।।
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