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सम्यवाब के पांच अतिचार
दर्शनाचार
[१३७
"हाणज्ज
सम्मत्तस्स पंचअइयारा
सम्यक्त्व के पांच अतिचार२३६. सम्मतस समणोवासएणं पंच अश्यारा इमे जाणियथ्या, न २३६. सम्यक्त्व के पांच प्रधान अति चार जानने योग्य हैं, समारियच्या, तं जहा
आदर के योग्य नहीं हैं, यथासंका, कंखा, यितिगिच्छा. परपास-पसंसा, पर-पास- (१) शंका, (२) काक्षा, (३) विचिकित्सा, (४) पर-पाषंडसंयवे ।।
-आव. अ. ६. सु. ६५ प्रशंसा, (५) पर-पापंड-संस्तव । १. सम्मट्टसणस्स पढम "संसयं" अश्यारं
(१) सम्यग्दर्शन का प्रथम संश" अतिचारसंस परियाणओ संसारे परिणाए भवा
जो संशय को जानता है वह संसार को भी जानता है, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिणाए भवर"
जो संशय को नहीं जानता है वह संसार को भी नहीं -आ. सु. १, अ.५, उ. १, मु. १४९ जानता है२. सम्म'सणरस बिइयं "कंखा" अइयारं
(२) सम्यक दर्शन का द्वितीय "कांक्षा" अतिचार--- 40--कह गंभंते ! समणा वि निगश खामोहणिज्ज प्र--भगवन ! धमणनिग्रंन्ध कांक्षामोहनीयकर्म का वेदन काम वेवेति ?
किस प्रकार करते हैं ? १०-गोयमा ! तेहि हि नाणतरेहि सणंतरेहि चरितंतरेहि उ०-गौतम ! उन-उन कारणों से जानान्तर, दर्शनान्तर,
स्निगंतरेहि पवयणंतरेहि पाक्यणतरेहि कप्तरेहि मर्ग- चारित्रान्तर, लिंगान्तर, अन्नधनान्तर, प्रायवनिकान्तर, कस्पान्तर, तरेहि मतंतरेहि भगतरेहि नयंतरेहि नियमंतरेहि संकिया मार्गान्तर, मतान्त भंगान्तर. नयान्तर. नियमान्तर, और कखिया वितिकिच्छिता भेट्समावना, कलुससमावला, प्रमाणान्तरों के द्वारा शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित. भेदसमापन्न एवं खलु समणा निग्गथा कंखामोहणिज्नं कम वेदेति । और कलुषसमापन होकर श्रमणनिग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का
–वि. स.१, उ. ३, सु.५ वेदन करते हैं।
(शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) सम्यक्त्वी की आठ प्रभावना१. पावयणी, २. धम्मकही, ३. वाई, ४, नमित्तिओ, ५. तदस्सी य । ६. विज्जासिद्धो, ७.4 कबी, अटुंब. पभावगा भणिया ।। सम्यक्त्वी के पांच भूषण१. जिणसासणे कमलया, २. पावणा, ३. तित्यसेवणा, ४. थिरया । ५. भत्ती अ गुणा सम्मत, दीवया उत्तमा पंच ।। सम्यक्त्वी के पांच लक्षण१. उक्राम, २. संवेगो विन, ३. निवेओ तह व होइ, ४. अणुकंपा, । ५. अस्थि च अ एए, सम्मरी लक्षणा पंच ॥ सम्यक्त्वी की छ: प्रकार की यला - नो अन्नतिस्थिए अन्नतिथिदेवे य तह सदेवाई । यहिए कुतित्थिएहि, १. वंदामि न वा, २. नमसामि ॥ ३. नेब अणालतो आलवेमि, ४. नो संलवेमि तह तेसिं । देमि न ५. असणाई, पेसेमि न गंध, ६. पुष्पाई ।। सम्यक्त्वी के छः आगार१. रायाभिओगो य, २. गणामिओगो, ३. बलाभिओगो य, ४. सुराभिओगी। ५. कतारवित्ती, ६. गुरुनिम्नहो य, छ छिडियाऊ जिणसासणम्मि ।। सम्यक्रवी की छ: भावना१. मूलं, २. दार, ३. पाहाणं, ४. आहारो, ५. भायणं, ६, निहीं । दु छक्कसा वि धम्मस्स, सम्मत्त परिकित्ति । सम्यक्त्व के छ: स्थान-- अस्थि अ णिच्चो कणई, कवं च सुएई अस्थि णिच्वाणं । अस्थि अ मुक्खो बाओ, छ सम्मत्तस्स ठाणाई ।।
--प्रवचन सारोजार, द्वार १४६, मा. ६४०-१५५ 1(क) मा दर्शनातिचार:--संका, कला, वितिपिच्छा, मूढदिट्री, अणुवबहा, अथिरीकरणं, अबच्छल, अप्पभावणया ।
--जीतकल्पचूणी, गा. २८