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________________ १३८ ] चरणानुयोग २. सम्मत्त "वा" अपारं पिता अध्या को अति समाधि सिता अनुमति असिता वेगे अणुगच्छति । अगच्छमोहि अणगमाणे कह में वि ४. परपाडसेबी ५. परपादसंभव - आयरियरिसचाई, परपासण्ड सेवाए गागंगणिए डुम्मए, प्रव्रज्या पूर्व साधक को निर्वेद-वशा - -आ. सु. १, अ. ५. सु. १६७ का अनुगमन न करने वाला उदासीन (म के प्रति खेद 1 पावसमाणे ति बुम्बई | सुहवा तस्युवसम्गा, परियुज्योज्ज ते बिब्रू ॥ (४) परपासंडसेवी जो आचार्य को छोड़ दूसरे धर्म-सम्प्रदायों में चला जाता है। जो छह मास की अवधि में एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता - उत्त. अ. १७, गा. १७ है, जिसका आचरण निन्दनीय है, वह पाप श्रमण कहलाता है । (२) सम्वतीय विचिकित्सा अतिचारविचिकित्साप्राप्त (शंकाशीय) आत्मा समाधि प्राप्त नहीं सूत्र २३६-२३७ कर पाता । कुछ लघुकर्मा ति ( बद्ध गृहस्थ ) आचार्य का अनुगमन करते (उनके वचन को समते है) कुछ अति अति/अनगारी (विवित्यादि रहित होकर आचार्य का) अनुगमन करते हैं। इन अनुगमन करने वालों के बीच में रहता हुवा (आचार्य) (तत्व नहीं समझने वाला) कैसे नहीं होगा ? तेसि च णं खेल बरथूणि परिगहियाणि भवंति तं जहाअप्पयरा वा सुज्जतरा वा तेसि व णं जण जाणवपाइं परिभाहियाई प्रति तं जहा -- अप्पयरा वा भुजयरा था। हत्यारेहकुलेहि गम्म अभिभूय एगे भिचारिए समुद्धता तो या वि एणकर व विहाय भिखारिया समुदिता, असतो वा वि ऐगे नायओ व उबकरमं च विध्यनहाय निरासा (५) परपासंस्तथ साधु सदैव अकुशीन बनकर दुराचारियों के साथ — सू. सु. १, अ. ६, गा. २८ संगति में भी सुखरूप ( अनुकूल) उपसर्ग रहते हैं, अतः विद्वान Free इस तथ्य को भलीभांति जाने तथा उनसे सावधान (प्रतिबुद्ध-जागृत) रहे | प्रव्रज्या पूर्व साधक की निर्वेद-दशा --- साहगस्स परवज्जा पुध्वं निव्वेदसा २३७. से बेमि पाईणं वा जाच उदीयं वा संगतिया मणुस्सा भवति २३७ (श्री सुश्रमस्वामी श्री स्वामी से कहते हैं ) मैं ऐसा से जहा बारिया बेगे, अनारिया वेगे, उगा है कि पूर्व आदि चारों दिशाओं में नाना प्रकार के गाता गेहरा वेगे, पन्या बेगे, मुख्या वेगे आ निवास करते हैं जैसे कि कोई आर्य होते है, कोई अनार्थ होते हैं. कोई गोत्रीय और कोई षीय होते हैं, कोई मनुष्य बेनके (और कोई टिमने कद के (स्व) होते हैं, किसी के शरीर का वर्ष सुन्दर होता है, किसी का अमुन्दर होता हैं, कोई सुरूप होते हैं, कोई कुरूप । रहे तथा कुशीलजनों या क्योंकि उसमें (शीनों की उनके पास खेत और मकान आदि होते हैं, उनके अपने जन ( परिवार, कुल आदि के लोग) तथा जनपद (देश) परिगृहीत (अपने स्वामित्व के ) होते हैं, जैसे कि किसी का परिग्रह थोड़ा और किसी का अधिक इनमें से कोई पुरुष पूर्वोक्त कुलों में जन्म लेकर विषय-भोगों की आसक्ति छोड़कर भिक्षावृति धारण करने के लिए ( हेतु) उद्यत होते हैं। कई विद्यमान ज्ञाविजन (स्वजन) अजातिजन (परिजन) तथा उपकरण (विभिन्न भोगोपभोग-साधन या धनधान्यादि वैभव को छोड़कर भिक्षावृत्ति धारण करने होने) के लिए समुद्यत होते हैं, अथवा कई अविद्यमान जातिजन, अशाविजन एवं उपकरण का त्याग करके भिक्षावृत्ति धारण करने के लिए सबत होते हैं।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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