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सूत्र २२७
प्रवज्या पूर्व साधक की निवेंद वर
जहा
सेवा असो वा गाओ जयकरणं भिखारिया समुदिता पुरुषामेव तेहि जातं जहा - इह खलु पुरिसे अष्णमण्णं समट्टाए एवं विप्पडवेवेति, तं जहा
तं मे मे हिरण्यं मे, सुमेधणं मे, घणं मे, कंसं मे, दूस में, विपुल धण-कण रयण-मणि मोतिय-संख सिल पाल रत्तरयण-संतसार-सावतेयं मे सहा मे, हवा मे, गंधा मे, रसा मे, फासा मे एते खलु मे काम भोगा अहमद एलेसि
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से महावी] पुनामेव अपना एवं समाजा, तं महा
मम अरे तुम रोमायके समुन्मे
अकंते अपिए असुमे अमणुष्णे अमणामे तुषखे णो सुहे, से हंता भवताशे कामभोगा इमं मम अष्णतरं युक्वं रोगश्यक परिवाइयह अणि अनंत अप्पिय असुभं अथणुष्णं अमणामं तस्यामि मा सोयामि वा रानि वा तिन पावामिया परिमा
मासे अभ्यरातो दुखातो सेवाका पहि अणिद्वातो अनंतातो अपियाओ असुहाओ अमन्नाओ अमणामाओ सुक्खाओ जो सुहातो । एवामेव नो सद्धपृथ्वं भवति ।
इह खलु कामभोगा जो ताणाए वा सरणाए वा पुरिसे वा
दर्शनाचार १३६
जो विद्यमान अथवा अविद्यमान जातिजन अज्ञातिजन उपकरण का त्यान करके निजावर्या (मादीक्षा) के लिए समुत्ति होते हैं, इन दोनों प्रकार के साधकों को पहले से ही यह ज्ञात होता है कि इस लोक में पुरुषगण अपने से भिन्न ऋतुओं (परपदार्थों) को उद्देश्य करके झूठ ही ऐसा मानते है कि ये मेरी मेरे में सेक
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यह खेत (वा जमीन ) मेरा है, वह मकान मेरा है, यह चाँदी मेरी है, यह सोना मेरा है, यह धन मेरा है, धान्य मेरा है, यह कांसे के बर्तन मेरे हैं, यह बहुमूल्य वस्त्र या लौह आदि धातु मेरा है, यह प्रचुर धन (गाय, भैंस आदि पशु) यह बहुत-सा कनक, ये रत्न, मणि, मोती, शंखशिला, प्रवाल (मूंगा), रक्तररन (लाल), पद्मराग आदि उत्तमोत्तम मणियों और पैतृक नकद धन, मेरे हैं, ये कर्णप्रिय शब्द करने वाले वीणा, वेणु आदि वाद्य-साधन मेरे हैं, ये सुन्दर और रूपवान पदार्थ मेरे है. इ
पदार्थ मेरे हैं, ये उत्तमोत्तम स्वादिष्ट एवं सरस खाद्य पदार्थ मेरे हैलोमा आदि मेरे हैं। ये पूर्वोक्त पदार्थ समूह मेरे कामभोग के साधन हैं, मैं इनका योगकात करने और प्राप्त की रक्षा) करने वाला
हूं, अथवा उपभोग करने में समर्थ हूँ ।
वह (जित अथवा प्रा लेने का इच्छुक की साधक स्वयं पहले से ही इनका उपभोग करने से पूर्व ही त यह जान ले कि इस संसार में जब मुझे कोई रोग या आतंक उत्पन्न होता है, जो कि मुझे इष्ट नहीं है, कान्त ( मनोहर ) नहीं है, प्रिय नहीं है, अशुभ है, अमनोज़ है, अधिक पीड़ाकारी (मनोव्यथा पैदा करने वाला) है, दुःखरूप है, सुखरूप नहीं है, (तब यदि मैं प्रार्थना करू कि हे भय का अन्त करने वाले मेरे धनधान्य आदि कामभोगों मेरे प्रिय अशुभ, रोग आतंक आदि
अनोश अतीव दुःवरूप या
को तुम बांट कर ले लो, क्योंकि मैं इस पीड़ा, रोग या आतंक से बहुत दुःखी हो रहा हूँ, मैं चिन्ता या शोक से व्याकुल हूँ, इनके कारण मैं बहुत चिन्ताग्रस्त हूँ, मैं अत्यन्त पीड़ित हो रहा है, में बहुत ही वेदना पा रहा हूँ, या अतिसंतप्त हूँ ।
अत: तुम सब मुझे इस अनिष्ट अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अवमान्य दुःखरूप वा असुस्वरूप मेरे किसी एक दुःख से या रोगातंक से मुक्त करा दो तो वे धान्यादि कामभोग) पदार्थ उक्त प्रार्थना सुनकर आदि से मुक्त करा दें। ऐसा भी नहीं होता ।
इस संसार में वास्तव में काम-भोग दुःख से पीड़ित उस व्यक्ति की रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं होते। इन काग-भोगों का उपभोक्ता किसी समय तो (दुसाध्य व्याधि, जरा