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________________ १४.] घरणानुयोग एकत्व-भावना से प्राप्त निर्वत सूत्र २३७०९३८ एगता पुष्यि कामभोगे विप्पाहति, कामभोगा वा एगता जीर्णता, या अन्य शासनादि का उपद्रव या मृत्युकाल आने पर) पुस्यि पुरिसं विपजहंति, अन्ने खलु कामभोगा अन्नो अहमसि, पहले से ही स्वयं इन काम भोग पदार्थों को (वरतना छोड़ देता है, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहिं कामभोगेहि मुक्कामो? इति अथना किसी समय (व्यादि के अभाव में) (विषयोन्मुख) संखाए गं वयं कामभोगे विपहिसामो। पुरुष को काम-भोग (ये कामभोग्य साधन) पहले ही छोड़ (कर चल) देते हैं। इसलिए ये काम-भोग मेरे से भिन्न है, मैं इनसे भिन्न हूँ। फिर हुम क्यों अपने से भिन्न इन काम-भोगों में मूच्छित आसक्त हों, इस प्रकार इन सबका ऐसा स्वरूप निकर (अब) हम इन कामभोगों का परित्याग कर देंगे। से मेहायी जाज्जा बाहिरंगमेतं, हणमेव उवणीलतराग, (इस प्रकार वह विवेकशील) बुद्धिमान माघक (निश्चितरूप से) जान ले, ये सब काम-भोगादिपदार्थ बहिरंग-बाह्म हैं, मेरी आत्मा से भिन्न (परभाव) हैं। तं जहा--माता मे, पिता मे, माया मे, भज्जा मे, मगिणी (सांसारिक दृष्टि वाले मानते है कि इनसे तो मेरे निकटतर मे, पुत्ता मे, धृता मे, नत्ता मे, सुण्हा मे, पेसा मे, सुही में, ये ज्ञातिजन (स्वजन) हैं जैसे कि (वह कहता है-) "यह मेरी सयण-संगण-संपता में, एते खलु में णायओ, अहमत्रि एतेसि। माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, -सूर्य. सु. २, अ. १, सु. ६६७-६७१ मेरे पुत्र हैं, ये मेरा दास (नौकर-चाकर) है, यह मेरा नाती है, मेरी पुत्र-वधू है, मेरा मिर है, ये मेरे पहले और पीछे के स्वजन एवं परिचित सम्बन्धी है । ये मेरे शातिजन है, और मैं भी इनका आत्मीय जन हूँ।" एमत्त भाषणया णिवेयं एकत्व-भावना से प्राप्त निवेद२३८. के मेहावी पुटवामेव अप्पणा एवं समभिजागेज्जा-इह खलु २३८. (किन्तु उक्त शास्त्रज्ञ) बुद्धिमान साधक को स्वयं पहले से मम अण्णसरे दुस्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा अणि?-जाव. ही सम्यक प्रकार से जान लेना चाहिए कि इस लोक में मुझे बुक्से नो सुहे. से हंसा भयंतारो गायत्रो इमं मम प्णतरं दुक्खं किसी प्रकार का कोई दुःख या रोग-आतंक (जो कि मेरे लिए रोगायक परिआदियध अगिढ़-जाव-नो सुहं माहं बुक्खामि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिययावत्-दुःखदायक है) पैदा होने पर वा-जाव-परितम्पामि था, हमातो में अन्नयरातो दुखातो मैं अपने ज्ञातिजनों से प्रार्थना करूं कि हे भय का अन्त करने रोगायंकातो पडिमोएह अणिट्टाओ-जावणी सुहातो। एवामेष वाले ज्ञातिजनो ! मेरे इग अनिष्ट, अप्रिय - यावत्--दुःखरूप णो लबपुव्वं भवति । या असुखरूप दुःख या रोगांतक को आप लोग बराबर बाँट लें, ताकि मैं इस दुःख से दुःखित, चिन्तित-यावत्-अतिसंतप्त न होऊँ। आप सब मुझे इम अनिष्ट-यावत्-उत्पीड़क दुःख या रोगालंक से मुक्त करा (छुटकारा दिला) दें।" इस पर वे ज्ञातिजन मेरे दुःष और शेगातक को बाँट कर ले लें, या मुझे इस दुःख या रोगातंक से मुक्त करा दें, ऐसा कदापि नहीं होता। सेसि वा वि भयंताराणं मम णाययाणं अश्णयरे दुक्खे रोगा- अथवा भय से मेरी रक्षा करने वाले उन मेरे ज्ञातिजनों को तंके समुप्पज्जेज्जा अगिट्ठ-जाव-नो सुहे. से हंता अहमेसेसि ही कोई दुःख या रोग उत्पन्न हो जाय, जो अनिष्ट, अप्रिय भयंताराणं णाययाणं इन अण्णतरं दुक्खं रोगातक परिपाइ- -यावत् ---असुखकर हो, तो मैं उसे भयत्राता जातिजनों के यामि अणि?-जावणी सुह, मा मे दुक्खंतु वा-जाव-रितप्पतु अनिष्ट, अप्रिय -- यावत्-- असुखरूप उस दुःल्य या रोगातक को वा, इमाओर्ग अग्णतरातो दुषखातो रोगातकरतो परिमोएमि बाँटकर ले लूं, ताकि बे मेरे ज्ञातिजन दुःख न पाएँ—यायत्अणिट्ठातो-जाव-नो सुहाती । एषामेव जो लबब्वं भवति । वे अतिसंतप्त न हों, तथा मैं उन शातिजनों को उनके किसी अनिष्ट-यावत्-असुखरूप दुःख या रोगातक से मुक्त कर दूं, ऐसा भी कदापि नहीं होता।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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