________________
४६०]
वरणानुयोग,
निषिद्ध क्षेत्रों में विहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र
मूत्र ७५१-७५४
के बली यूया-आयाणमेय ।
केवली भगवान् कहते हैं-वहाँ जाना कर्मबन्ध का कारण है, तेणं वाला "अयं तेणे, अयं उवच्चरए, अयं ततो आगते" क्योंकि-ये म्लेच्छ, अज्ञानी लोग साधु को देखकररित कटु तं भिक्खू अक्कोसेज्ज वा, यहेज्ज वा, भेड "यह चोर है, यह हमारे शत्रु के गांव से आया है", यों कहकर वा, उद्धवेज्ज या, बत्थं वा-जाव-पारपुंछणं अपिछदेज्ज वा, वे उस भिक्षु को गाली-गलोज देंगे, कोसेंगे, रस्सों से बांधग, भिवेज्ज वा, अवहरेन्ज वा, परिवेज वा ।
कोठरी में बन्द कर देंगे, उपद्रव करेंगे, उमके अस्त्र - यावत् पाद-पोंछन आदि उपकरणों को तोड़-फोड़ डालेंगे, अपहरण कर लेंगे या उन्हें कहीं दूर फेंक देंगे, (क्योंकि ऐसे स्थानों में यह सब
सम्भव है)। अह निवखूणं पुथ्वोवट्ठिा पहाणा-जाव-उबएसे जंतहप्पगा- इसीलिए तीर्थकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा भिक्षुओं के लिए राणि विस्वस्वाणि पच्चंतियाणि सुगायतणागि-गाव-णो पहले से ही निर्दिष्ट यह प्रतिज्ञा-यावत् -उपदेश है कि भिक्षु विहारवत्तियाए पवज्जेज्जा गमणाए । ततो संजयामेव उन सीमा प्रदेशवर्ती दस्यु स्थानों रो यावत् -विहार की दृष्टि गामाणुगामं हज्जेज्जा।
से जाने का संकल्प भी न करें। अतः इन स्थानों को छोड़कर -आ. मु. २, अ. ३, उ. १, सु. ४७१ संयमी साधु यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विहार करे। निसिद्ध खेलेसु बिहार-करणस्स पायच्छित्त सुत्ताई- निषिद्ध क्षेत्रों में विहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र७५२. (जे भिक्खू विहं अणेगाह-गमणिज्जं सति लाडे विहाराए ७५२. जो भिक्षु आहार आदि सुविधा से प्राप्त होने वाले जनपदों
संयरमाणेसु जणवएसु विहार-पडियाए अभिसंधारेइ अभि- के होते हुए भी बहुत दिन लगें ऐसे लम्बे मार्ग से जाने का संकल्प संघारत वा साइज्जइ।
करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। ले भिक्खू विरुवलवाई बसुयायणाई अणारियाई मिलक्खूई जो भिक्षु आहारादि सुविधा से प्राप्त होने वाले जनपदों के पतियाई सति साहे विहाराए संयरमागेच जणवएसु होते हुए भी सीमा पर रहने वाले अनेक प्रकार के दस्यु, अनार्य, विहार-पडियाए अभिसंधारे अभिसंधारतं वा साइजह। म्लेच्छ आदि (जहाँ रहते हैं। ऐसे) जनपदों की ओर बिहार
करता है, करवाता है, करने बाने का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवाज चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं उम्घाइयं ।) उस 'भिक्षु को चातुर्मासिक उद्घातिक (परिहारस्थान)
. -(नि. उ. १६, मु. २६-२७) (प्रायश्चित्त) आता है। आमोसमाणं भएण उम्मग गमण णिसेहो
चोरों के भय से उन्मान गमन का निषेध७५३. से भिक्खू वा भिवानुणी वा गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, ७५३. ग्रामानुग्राम विहार करते साधु-साध्वी यह जाने कि मार्ग
अंतरा से विहं सिया, सेज्नं पुण विहं जाणेज्जा, इमंसि खलु में अनेक दिनों में पार करने योग्य अटवी मार्ग है। उस अटवी विहंसि बहवे आमोसगा उवकरणपहियाए संपडिया मार्ग में अनेक चोर (लुटेरे) इकट्ठे होकर साधु के उपकरण छीनते गाछज्जा, णो तेसि भीमो उम्मग्येणं गच्छज्जा-जाव-समा- की दृष्टि से आ जाएँ तो साधु उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग में हिए। ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेम्जा । न जाये-थावत समाधिभाव में स्थिर रहे। चोरों का उपसर्ग
-आ. सु. २, अ. ३, ३. ३, सु. ५१६ समाप्त होने पर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे । आमोसगउवसागे तुसिणीए होज्मा
चोरों का उपसर्ग होने पर मौन रहे७५४. से भिक्खू वा भिक्खूणो वा गामाणुगाम दूहज्जेज्जा, ७५४. मामानुग्राम विचरण करते हुए साधु के पास यदि मार्ग में
अंतरा से आमोसगा संपडिया गच्छेज्जा, ते गं आमोसगा चोर (लुटेरे) संगठित होकर आ जाएँ और वे उससे कहें कि एवं बवेजा-"आउसंतो समणा ! आहर एवं वत्थं "आयुष्मन् श्रमण ! मे वस्त्र-यावत् -पादपोंछन आदि लाओ, वा-जाव-पावपुछणं वा देहि, णिक्तिवाहि," तं जो वेज्जा, हमें दे दो, या यहाँ पर रख दो।" इस प्रकार कहने पर साधु मिक्खिवेज्जा, णो बंदिय जाएन्जा, गो अंजलि कट उन्हें वे (उपकरण) न दे, और न निकाल कर भूमि पर रखे ।
सहा