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सूत्र ७५५-७५८
चोरों द्वारा उपघि छीन लेने पर फरियाव न करे
चारित्राचार
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जाएज्जा, णो कलुणपणियाए जाएन्जा, धम्मियाए जायणाए अगर ये बलपूर्वक लेोलमें तो उन्हें पुन: लेने के लिए उनकी जाएज्जा तुसिणीयभावेण वा उबेहेज्जा।
स्तुति (प्रशंसा करके, हाथ जोड़कर या दीन-वचन कहकर याचना . आ. सु. २, अ. ३, ३. ३, गु. ५१७ न करें । यदि मांगना हो तो धर्मवचन कहकर समझाकर मांगे
अथवा मौनभान धारण करके उपेक्षाभाव से रहे। आमोसगेहि जवहि अवहरिए अभिओग णिसेहो- चोरों द्वारा उपधि छोन लेने पर फरियाद न करे-- ७५५. ते ग आमोसगा सयं करणिज्जति कटु अक्कोसंति ७५५. यदि चोर अपना कर्तव्य (जो करना है) जानकर साधु को
वा-जाब-उधयति वा बत्थं वा-जाव-पारपुंछण या अच्छि- कोसे -यावत् --गाली-गलौज करे -मावत् उपद्रव करे और ग्ज वा-जाव-परिवेज वा तं गो गामसंसारियं फुजा, उसके वस्त्र यावत् – पादपोंछन को फाड़ डालें, तोड़फोड़ दे जो रायसंसारिय कुज्या णो पर उवसंकमित स्या-आज- -यावत-दूर फेंक दे तो भी बह साधु ग्राम में जाकर लोगों संतो गाहावती एसे खलु आमोसगा उपकरणपजियाए सयं से उस बात को न कहे, न ही राजा या सरकार के आगे फरियाद करणिति पट्ट अक्कोसति बा-जाव-परिवेंति वा। करे, न ही किसी गृहस्थ के पास जाकर कहे कि "आयुष्मन् एतप्पगारं मयं वा बई वा णो पुरतों कट्ट विहरेज्जा । अपु- गृहस्थ !" इन चोरों (लुटेरों) ने हमारे उपकरण छीनने के लिए सुए-जाव-समाहिए ततो संजयामेव गामागुगाम दूइज्जेज्जा। अथवा करणीय कृत्य जानकर हमें गाली-गलौज की है—पावत्-आ. सु.२, अ.३, उ.३, सु. ५१८ हमारे उपकरणादि नष्ट करके दूर फेंक दिये हैं" ऐसे विचारों
को साधु मन में भी न लाये और न वचन से व्यक्त करे। अपितु रागद्वेष रहित होकर पावत्-.. समाधिभाव में स्थिर रहे। चोरों का उपद्रव समाप्त होने पर वह यतनापूर्वक प्रामानुग्राम
विचरण करे। अण्णण उहि वहावणस्स पायच्छिस सुतं
अन्य से उपधि वहन करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र७५६. जे मिक्खू अण्णउत्पिएण वा गारस्थिएग वा उहि ७५६, जो भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से उपधि का वहन वहावेइ वहावेत या साइज्जह ।
करवाता है, वहन करवाने के लिए कहता है, वहन करवाने वाले
का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषज्जह चाउम्मासिब परिहारट्टाणं उग्धाइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (शयश्चित्त)
-नि. उ. १२, सु. ४० आता है। पाडिपहियाणं पुन्छिए मोणं कायव्यं
पथिकों के पूछने पर मौन रहना चाहिए७५७. से भिक्खू वा मिक्मणी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे, ७५७. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग
अंतरा से पारिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाणिपहिया एवं में सामने से आते हुए पथिक मिलें और ने साधु से यों पूछेयवेज्जा-आउसतो समणा ! केशतिए एस गामे या-जान- "हे आयुष्मन् श्रमण ! यह गाँव कितना बड़ा या कैसा है ? रायहाणी वा, केवतिया एत्य आसा हत्थी गामपिडोसगा -यावत्-यह राजधानी कैसी है ? वहाँ पर कितने घोड़े, हाथी मणुस्सा परियंसति ? से बहुमसे बहुउवए बहुजणे तथा भिखारी व कितने मनुष्य निवास करते हैं (क्या इस गांव बहुजवसे ? से अप्पमत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजवसे? एत- .-यावत् – राजधानी में) प्रचुर आहार, पानी, मनुष्य एवं धान्य प्पगारागि पसिणाणि पुट्ठो पो आइक्वेज्जा, एयप्पगाराणि है ? अथवा अस्प आहार पानी मनुष्य एवं धान्य है ?" इस पसिगाणि जो पुच्छेज्जा।
प्रकार के प्रश्न पूछे जाने पर साधु उसका उत्तर न दे। उन प्रति -आ. सु. २, अ. ३, ज. २, सु. ५०२ पथिकों से भी इस प्रकार के प्रश्न न पूछे। उसके द्वारा न पूछे
जाने पर भी वह ऐसी बातें न करें। मग्गे गिहत्येहि सद्धि आलाव णिसेहो
मार्ग में गृहस्थों से वार्तालाप का निषेध७५८. से भिक्खू वा, भिक्खुणी या गामाणुगाम दूइज्जमाणे णो ७५८, साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम बिहार करते हुए गृहस्थों के
परेहि सद्धि परिजविय परिमविय गामाणुगाम इमेजा। साथ बहुत अधिक वार्तालाप करते न चलें, किन्तु ईर्यासमिति ततो संजयामेव यामाणुगाम बदज्जेन्जा ।
का यथाविधि पालन करते हुए ग्रामानुग्राम विहार करें। —आ सु. २. अ.३,उ,२,सु. ३२