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________________ ८६] परणामुयोग बिनय का सुपरिणाम सूत्र १२६-१२८ पेहे हियाणुसासणं, सुस्मूसह तंत्र पुणो अहिए। (१) गोक्षार्थी मुनि हितानुशासन की अभिलाषा करता हैनयमाणमएण मज्जा, विणयसमाही आयट्टिए ॥ सुनना चाहता है। -दस. अ.६, 3. ४, सु. १-४, गा. १-२ (२) शुश्रूषा करता है-अनुशासन को सम्यग् रूप से ग्रहण करता है। (३) अनुशासन के अनुकूल आचरण करता है। (४) मैं विनव-समाधि में कुशल हूँ-इस प्रकार गर्न के उन्माद से उन्मत्त नहीं होता। विणयस्स सुफलं विनय का सुपरिणाम१२७. तम्हा विणयमेसेज्जा, सील पडिलभेजओ। १२७. इसलिए विनय का आचरण जिससे शील की प्राप्ति हो। जुल-पुत्त नियागट्ठी, न निश्कासिज्जद कई॥ जो बुद्ध (आचार्य का प्रिय शिष्य) और मोक्ष का अभिलाषी -उत्त. अ. १, गा.७ होता है, वह गण से नहीं निकाला जाता । नच्चा नमइ मेहावी, लोए "किसी से" जायए। मधाबी मुनि उक्त विनय-पद्धति को जानकर उसे क्रियान्वित हवई किकचाणं सरणं, भूयाग जगई जहा ।। करने में तत्पर हो जाता है। उसकी लोक में कीति होती है। जिस प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए आधार होती है, उसी प्रकार वह धर्माचरण करने वालों के लिए बाधार होता है। पुज्जा जस पसीवन्ति, संबुद्धा पुश्वसंधुया । उरा पर तत्ववित् पूज्य आचार्य प्रसन्न होते हैं। अध्ययनपसना लाभइस्सन्ति, घिउलं अद्वियं सुयं ॥ काल से पूर्व ही वे उसके घिनव-समाचरण से परिचित होते हैं। वे प्रसन्न होकर उसे मोक्ष के हेतुभूत विपुल श्रुत-ज्ञान का लाभ करवाते हैं। स पुज्जसत्ये सुषिणीयसंसए, बह पूज्य होता है--उसके शास्त्रीय ज्ञान का बहत सम्मान "मणोई" चिट्ठई कम्म-संपया। होता है उसके सारे संशय मिट जाते हैं। वह गुरु के मन को भाता है। वह कम-सम्पदा (दसविध समाचारी) से सम्पन्न होकर रहता है। तवोसमायारिसमाहिसंबुरे , वह तप-रामाचारी और समाधि से संवृत्त होता है। पांच महज्जुई पंच-बयाई पालिया ॥ महावतों का पालन कर महान् तेजस्वी हो जाता है। स देव-गन्धव-मणुस्सपूहए, चइत्तु वेहं मलपकपुज्ययं । देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य मल सिक वा हबा सासए, देवे वा अप्परए महिसिए॥ और पंक से बने हुए शरीर को त्यागकर या तो शाश्वत सिद्ध -उत्त, अ. १, गा. ४५,४६ होता है या अल्पकर्म वाला महद्धिक देव होता है। अविणीय लक्षणाई अविनीत के लक्षण-- १२८. आणाऽनिद्देसफरे । गुरुणमणुववायकारए । १२८. जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पासन नहीं करता, गुरु परिणीए मसंबुझे , “अणिवीए ति" बुझ्चई की शुश्रूषा नहीं करता, जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है और -उत्त. अ. १, गा. ३ तथ्य को नहीं जानता, वह "अविनीत" कहलाता है। आपरियउवमाएहि , सुयं विणयं न गाहिए। जिन आचार्य और उपाध्याय ने श्रुत और विनय सिखाया तेचे खिसई बाले, पावसमणि ति बुच्चाई ॥ उन्हीं की निन्दा करता है, वह बिवेक-विकल भिक्षु पाप-श्रमण कहलाता है। आयरियउवमायाणं, सम्म नो परितप्पद । जो आचार्य और उपाध्याय के कार्यों की सम्यक् प्रकार से अपरिपूयए ब, पावसमणि ति वुच्चई ॥ चिन्ता नहीं करता-उनको सेवा नहीं करता, जो वड़ों का -उत्त, ब. १७, मा. ४-५ सम्मान नहीं करता, जो अभिमानी होता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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