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सूत्र १२३-१२६
चार प्रकार की विनय समाधि
बिनय शानाचार
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अणुसासणमोकायं । बुक्कडरस य चोयणं ।
मृद् या कठोर यचनों से किया जाने वाला अनुशासन दुष्कृत हियं तं मन्नए पग्णो, बेस होइ असाहुणो । का निवारक होता है । प्रज्ञावान् मुनि उसे हित मानता है । रही
असाधु के लिए दोष का हेतु बन जाता है। हिमं विगय-भया बुद्धा, फरसं पि अणुसासणं ।
भय-मुक्त बुद्धिमान शिघ्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी बेस्सं तं होइ मूढाणं, खन्ति - सोहिकरं पर्य। हितकर मानते हैं। परन्तु अज्ञानियों के लिए वही-क्षमा और
उत्त. अ.१, गा.२७-२६ चित्त-विशुद्धि करने वाला नुण-वृद्धि का आधारभूत-अनुशासन
द्वेष का हेतु बन जाता है। गुरुकयाणुसासणस्स पभावो
गुरु के अनुशासन का शिष्य पर प्रभाव१२४. रमए पण्डिए सासं, हयं भदं व बाहए। १२४. जैसे उनम घोड़े को होकते हुए उसका वाहक आनन्द बाल सम्मइ सासन्तो, गलियरस व वाहए। पाता है, वैसे ही पण्डित (विनीत) शिष्य पर अनुशासन करता
-उत्त. अ. १, पा. ३७ हुआ गुरु आनन्द पाता है और जैसे दुष्ट घोडे को हांकते हुए
उसका वाहक खिन्न होता है वैसे ही बाल (अविनीत) शिष्य पर
अनुशासन करता हुआ गुरु चिन्न होता है । कृषियगुरु पसायणटा सेहस्स किच्चाई
कुपित गुरु के प्रति शिष्य के कर्तव्य१२५. आयरियं कुषियं नाचा, पत्तिएण पसापए। १२५. आचार्य को कुपित हुए जानकर विनीत शिष्य प्रतीतिकारक विमायेज्न पनलिउडो, बएज्जन पुगो ति य ॥ (या प्रीतिकारक) वचनों से उन्हें प्रसन्न करे । हाथ जोड़कर उन्हें
--उत्त. अ.१, गा, ४१ शान्त करे और यों कहे कि "मैं ऐसा पुनः नहीं करूंगा।" चम्विहा विणयसमाही
चार प्रकार की विनय-समाधि--- १२६. सुयं मे आउस तेगं भगवया एवमक्खायं-इह खलु धेरैहि १२६. आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन भगवान (प्रज्ञापक आचार्य भगवंतहि चत्तारि विणयसमाहिद्वाणा पत्ता।
प्रभवस्वामी) ने इस प्रकार कहा-इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में स्थविर
भगवान् ने विनय समाधि के चार स्थानों का प्रज्ञापन किया है । ५०-कबरे खलुते थेरेहि भगवतेहि पत्तारि विणयसमाहि- प्र-वे विनय-समाधि के चार स्थान कौन से हैं जिनका ट्ठाणा पन्नत्ता?
स्थविर भगवान् ने प्रशापन किया है। --इमे खलु ते येरेहि भगवतेहिं घसारि विणयसमाहिद्वाणा उ०. वे विनय-समाधि के चार प्रकार ये हैं, जिनका स्थविर पतत्ता, तं जहा -
भगवान ने प्रशापन किया है, जैसे१. विणयसमाहो, २. सुपसमाही,
(१) विनय-समाधि (२) श्रुत-समाधि, ३. सबसमाही, ४. आयारसमाही ।
(३) तप-समाधि, (४) आचार-समाधि । विणए सुए म तवे, य आयारे मिच्छ पंडिमा ।
जो जितेन्द्रिय होते हैं वे पण्डित पुरुष अपनी आत्मा को अभिरामयति अप्पाणं, जे भवंति जिईरिया ॥ सदा विनय, श्रुत, तप और आचार में लीन किये रहते हैं । पाविहा खलु विणयसमाही भवा तं नहा
विनय-समाधि के चार प्रकार है, जैसे१. अपसासिज्जंसो सुस्ससह,
(१) शिष्य आचार्य के अनुशासन को सुनना चाहता है। २. सम्म संपडिपज्जा
(२) अनुशासन को सम्यग् रूप से स्वीकार करता है। ३. वेयमाराहा,
(३) वेद (ज्ञान) की आराधना करता है अथवा (अनुशासन
के अनुकूल आचरण कर आचार्य की वाणी को सफल बनाता है। ४. न य भइ अत्तसंपाहिए।
(४) आहमोत्कर्ष (गर्व) नहीं करताबसस्थं पयं भषा । मायस्थ सिसोगो
यह चतुर्थ पद है और यहाँ (विनय-समाधि के प्रकरण) में एक श्लोक है