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णानुयोग
प्रश्न पूछने की विधि
पुत्र ११६-१२३
का
अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्त अंतरा ।
विना पूछ न बोले, बीच में न बोले, पृष्ठमांस-चुगली न पिटिमसं न खाएन्जा, मामामोसं विवज्जए । खाए और कपटपूर्ण असत्य का वर्जन करे।
-दस. अ.८, गा. ४५ नापुटो घागरे किंत्रि', पुट्ठो वा नालियं दए ।
बिना तो
बिना पूछे कुछ भी न बोले। पूछने पर असत्य न बोले । कोहं असत्वं कुवेज्जा', धारेज्जा पियमम्पियं ॥ क्रोध न करे । आ जाए तो उसे विफल कर दे । प्रिय और अप्रिय
-उत्त. अ. १, गा.१४ को धारण करे—उन पर राम और द्वेष न करे। न लवेज्ज पुढो सावजं, न निर? न मम्मयं ।
किसी के पूछने पर भी अपने, पराये या दोनों के प्रयोजन के अप्पणट्ठा परट्टा बा, उमयस्सन्तरेण वा। लिए अथवा अकारण ही सावध न बोले, निरयंकन बोले और
-उत्त. अ. १, या, २५ मर्म-भेदी वचन न बोले । सेहकयपण्हस्स गुरु पिण्णमुत्तरं
शिप्य के प्रश्न पर गुरु द्वारा उत्तर-- १२०. एवं विणयजुत्तस्त, सुतं अत्थं च भयं । १२०. इस प्रकार जो शिष्य विनय युक्त हो, उसके पूछने पर गुरु पुच्छमागस्स सोसस्स, वागरेज बहानुयं ॥ सूत्र, अर्थ और तदुभय (सूत्र और अर्थ दोनों) जैसे सुने हों (जाने
-उत्त. अ. १, गा. २३ हुए हों) वैसे बताये । गुरु पइ सेहस्स किच्चाई
गुरु के प्रति शिष्य के कर्तव्य१२१. तेसिं गुरुणं गुणसागराणं, सोमाण मेहानि मुभासियाई । १२१. जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरुओं के सुभाषित सुनपरे,मुणी पंचरए तिगुप्तो, घउक्कसायावगए स पुज्जो॥ कर उनका आचरण करता है, पाँच महाव्रतों में रत, मन, वाणी
और शरीर से गुप्त तथा क्रोध, मान, माया और लोभ को दूर
करता है, वह पूज्य है। गुरुमिह सपय परियरिय मुगी, जिणवनिरणे अभिगमकुसले। इस लोक में गुरु की सतत सेवा कर, जिनमत-निपुण (आगमधणिय रयमर्स पुरेकर, भासुरमउलं गई गय॥ निपुण) ओर अभिगम (विनय-प्रतिपत्ति) में कुशल मुनि पहले -दस. अ.६, उ. ३, गा. १४-१५ किए हुए रज और मल को कमिगत कर प्रकाशयुक्त अनुपम गति
को प्राप्त होता है। सेहं पह गुरुस्स किच्चाई -
शिष्य के प्रति गुरु के कर्तव्य१२२. जे माणिया सययं माणपंक्ति असेण करने व निवेसयंति । १२२. अभ्न्यान आदि के द्वारा सम्मानित किये जाने पर जो . ते माणए माणरिहे तवस्सी, मिइंदिए सच्चरए स पुज्जो॥ शिष्यों को ससत सम्मानित करते हैं-श्रुत ग्रहण के लिए प्रेरित -दस. अ.६, उ. ३, गा, १३ करते हैं, पिता जैसे अपनी कन्या को बलपूर्वक योग्य कुल में
स्थापित करता है, वैसे ही आचार्य अपने शिष्यों को योग्य मार्ग में स्थापित करते हैं, उन माननीय, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्य
रत आचार्य का जो सम्मान करता है वह पूज्य है। अणुसासणे सेहस्स किच्चाई
अनुशासन-पालन में शिष्य के कर्तव्य१२२.जं मे बुद्धाणुसासन्ति, सीएम फरसेण ।।। १२३. "आचार्य मुझ पर कोमल या कठोर वचनों से जो अनुमम लामो ति पेहाए, पयो तं पडिस्सुणे॥ शासन करते हैं वह मेरे लाभ के लिए है"—ऐसा सोचकर प्रयल
पूर्वक उनके वचनों को स्वीकार करे।
१ अपुच्छिओ शिक्कारणं न भासते।
-- जीतकल्प चूणों, पृ. २५८ २ कवाषित् क्रोध आ जाय तो उपशान्त होकर दुःसंकल्प, दुर्वचन एवं दुष्कृत्य का पश्चात्ताप करे । क्रोध के असत्य करने की,
अर्थात् क्रोध करने से संचित अशुभ कर्मवर्गणा के क्षय की यही विधि है। ३ लोकविरुद्ध या राज्यविरुद्ध आदि, जिसके प्रगट होने से मनुष्य को अपयश के भय से मरना पड़े वह वचन ममं वचन है।