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________________ सूत्र ४५१ नविरमणवत को पांच भावमाएं चारित्राचार ३१५ मेहणविरमणवयस्स पंच भावणाओ - मैथुनविरमणबत की पाँच भावनाएं४५१. सस्सिमाओ पंच मावणाओ भवति । ४५१. उसकी पाच भावनाएँ कही गई है१. तस्थिमा पदमा भादणा (१) उन पांच भावनाओं में पहली भाषना इस प्रकार हैपो णिमये अभिमवर्ग अभिक्खणं इत्थीग कह कहइत्तए निम्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों की काम-जनक कथा (बातसिया। चीत) न कहे। केषसी बूया-निग्गथे गं अभिषक्षणं अभिषणं इस्थीणं कह केवली भगवान् ने कहा है--बार-बार स्त्रियों की कथा कहेमाणे संतिमेदा, संसिविमंगा, संति केलिपण्णताओ कहने वाला निर्ग्रन्थ शान्ति रूप चारित्र का और शान्तिरूप धम्माओ सेज्जा। ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है, तथा शान्तिरूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। णो णिग्गथे अभिवखणं अमिक्खणं इत्योणं कह कहेहतए सिय अतः निम्रन्थ को स्त्रियों की कथा बार-बार नही कहनी त्ति पक्षमा भाषणा। चाहिए । यह प्रथम भावना है। २. महावरा बोचा भावणा (२) इसके पश्चात् वूसरी माधना यह हैगो णिगंथे हत्थोणं मगोहराई मगोरमाई इंदियाई भालो- निर्ग्रन्थ साधु काम-राग से स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इत्तए णिमाइतए सिया। इन्द्रियों को सामान्य रूप से या विशेष रूप से न देने ।। केवसी बूया-णिगं गं हस्थीण मणोहराई मणोरमाई केवली भगवान् ने कहा है --स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम वियाई आलोएमाणे णिमाएमाणे संतिभेवा, संतिविमंगा इन्द्रियों को काम-रागपूर्वक सामान्य मा विशेष रूप से अवलोकन संति केवलिपग्णताओ धम्माओ भंसेज्जा, करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करता है, तथा शान्तिरूप केवलीनरूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गोणि इत्थीणं ममोहराई मणोरमाई बियाई आलो- अतः निर्गन्ध को स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रिमों सिए गिज्माहसए सिय सिसोचा भावणा। का कामरागपूर्वक सामान्य अथवा विशेष रूप से अवलोकन नहीं करना चाहिए। यह दूसरी भावना है। ३, अहावरा तच्या भाषणा (३) इसके अनन्तर तीसरी भावना इस प्रकार हैणो गिरगं इस्थोणं पुनरवाई पुग्यकोलियाई सुमरिसए निम्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति (पूर्वाश्रम में सिया। __ को हुई) एवं पूर्व कामक्रीड़ा का स्मरण न करे। केबली सुपा-गिपंथे गंहस्थीर्ण पुम्बरयाई पुम्बकीलिया केवली भगवान् ने कहा है स्त्रियों के साथ की हुई सरमाणे संतिभेषा सतिविमंगा संति केवलिपपलाओ पूर्वरति एवं पूर्व कामक्रीड़ा का स्मरण करने वाला साधु शान्तिधम्माओ मैसेज्जा । रूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने बाला होता है तथा शान्तिरूप केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गो पिग्गंधे इत्यीणं पुग्वरपाई पुश्वकीसियाई सुमरित्तए सिप अत: निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ हुई पूर्वरति एवं पूर्व तितम्या भावणा। काम-कीड़ा का स्मरण न करे । यह तीसरी भावना है। ४. अहावरा च उत्था भावणा (४) इसके बाद चौयो भावना इस प्रकार हैणातिमत्ताग-भोयणभोई से निगंधे, णो पणीयरसभोषण- निग्रन्थ अतिमात्रा में आहार-पानी का सेवन न करे, और न ही सरस स्निग्ध-स्वादिष्ट भोजन का उपयोग करे। केवली धूया -असिमसाण-भोयणमोई से भिग्न पणीय- केवली भगवान ने कहा है -जो नित्य प्रमाण से अधिक रस भीषणमोई सि संतिभेवा संसिविमंगा संति केवलि- (अतिमात्रा में) आहार-पानी का सेवन करता है, तथा स्निग्ध पण्णताओ धम्माओ मंसेउजा । सरस-स्वादिष्ट भोजन करता है, यह गान्तिरूप चारित्र का नाश करने वाला तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य को भंग करने वाला होता है तथा शान्तिरूप केवली-प्रजप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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