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________________ ६६०-६९१ निमंत्रण करने पर भी बोषयुक्त आहारादि लेने का निषेध चारित्राचार : एषणा समिति से भिक्खू बा, भिक्खूशी वा गाहावइकुलं पिंजवायपडियाए भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट अणुपविट्ठ समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा-असणं वा-जाब- होने पर यह जाने कि—पह अशन-यावत् -स्वादिम आहार साइमं या बहवे समण माहण-अतिहि-किवण-वणीमए बहुत से श्रमणों, मानों, अतिथियों, दरित्रियों और याचकों के समुहिस्स पाणाई-जाव-सत्ताई-जाव-आह१ तेति त उद्देश्य से प्राणी-यावत्- सत्वों का समारम्भ करके-पावत्तहप्पगार असणं वा-जाव-साइमं धा अपुरिसंतरकडं, अबहिया अन्य स्थान से लाया गया है, इस प्रकार के (दोषयुक) अशनगोहर, अणत्तट्टियं, अपरिभुत्त, अणासेवितं. अफासुयं-जावणो यावत्---स्त्रादिम जो अन्य पुरुष को नहीं दिया गया है. बाहर पणिज्जा। नहीं निकाला गया है. स्वीकृत नहीं किया गया है, उपभुक्त न हो. सनासेवित हो, उसे अवासुक जानकर---यावत्-ग्रहण न करे । अह पुण एवं प्राज्जा पुरिसंतरकर, बहिया णीहर्ड यदि वह इस प्रकार जाने कि-यह आहार अन्य पुरुष को दे अत्तट्टियं, परिमुत, आसेषित, फामुयं-जाव-पांडगाहेज्जा दिया गया है, बाहर निकाला गया है, दाता द्वारा स्वीकृत हो, उग-आ० सु० २, स० १, उ०१. सु० ३३२ मुक्त हो त्या आसेवित हो तो ऐसे आहार को प्रामुक समझकर यावत्- ग्रहण कर ले। णिमंतणानंतर दोस जुत्त आहाराइ गहण गिसेहो- निमंत्रण करने पर भी दोषयुक्त आहारादि लेने का निषेध६६१. से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिटुम्ज वा, णिसीएम था, ६६१. (सावध कार्यों से निवृत्त) भिक्षु श्मशान में, सूने मकान में, तुथट्टग्ज वा, सुसाणसि वा, सुग्णागारंसि वा, रुक्समूलसि वृक्ष के नीचे, पर्वत की गुफा में, कुम्भकारशाला आदि में कहीं वा, गिरिगुहसि वा, फुभारायतणनि वा, हरस्था वा, रह रहा हो, खड़ा हो, बैठा हो या लेटा हुया हो उस समय कोई कहिचि विहरमाणं त भिक्षु उपसंकमित्तु गाहावती बूश --- गृहपति उस भिक्षु के पास आ कर कहे"आउसंतो समणा ! अहं खतु तव अट्टाए असणं वा-जाय- "आयुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिए अशन यावत् -स्वार साइमं वा, वत्यं वा, पडिग्गहं त्रा, कंबल वा. पायपुंछण वा, वस्त्र, पात्र, कम्बल, या पादपोछन प्राणियों-यावत-सरवों का पाणाई-जाब-सत्ताई समारम्भ सम हिस्स, की, पामिन, समारम्भ करके बना रहा हूँ या खरीद कर, उधार लेकर, किसी अच्छेज्ज, अणिसिद्ध, अभिहा, माहट चेतेमि अवसह से छीनकर, दुसरे की वस्तु को उनकी बिना अनुमति से लाकर वर समुस्सिणामि, से भुजह, वसह माउसत्तो समणा ।" या घर से लाकर आपको देता हूँ अथवा आपके लिए उपाश्रय बनवा देता हूँ। हे आयुष्मन् घमण ! आप उस अशनादि का उपभोग करो और उपाश्रय में रहो।" भिक्खू त गाहावति समणसं सवयस पडियाइक्रये.... ___ भिक्षु उस सुमनम् (भद्र हुदय) एवं सुवयस् (भद्र बचन बाले) गृहाति को कहे"आउसतो गाहावती ! णो खलु ते वयणं आढामि, णो लु हे आयुष्मन् गृहपति ! मैं तुम्हारे इस वचन को बादर ते अयणं परिजाणामि, जो तुम मम अट्टाए असणं वा जाव- नहीं देता, न ही तुम्हरे वचन को स्वीकार करता हूँ। जो तुम साइमं वा, वस्पं बा-जाव-पायछणं वा पाणाई या-जाव- मेरे लिए अशन-यावत्-स्वादिम, बस्त्र यावत्-पादों छन, सत्ताई का समारंभ-जाव-अभिहर आहट्ट चेतेसि आवसह प्रागियों-यावत्-सत्वों का समारम्भ करके - यावत्-अपने वा समुस्सिणासि, से विरतो आउसो गाहावतो ! एतरस घर से यहां लाकर मुझे देना चाहते हो, मेरे लिए उपाश्रय अकरणयाए।" बनवाना चाहते हो । हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं विरत हो चुका हूँ। यह अकरणीय होने से (मैं स्वीकार नहीं कर सकता)।" से भिक्खू परबफ मेज्ज वा-जाव-तुपट्टग्ज वा, सुसाणमि वा भिक्षु कहीं रह रहा हो- यावत् - लेटा हुआ हो, श्मशान -जाव-हुरत्था या कहिधि विहरमाणं, हे भिषणं उपसंकमित्तु में-यावत् --- अन्य कहीं भी रहे हुए उस भि के पास आवर गाहावती आयगयाए पहाए असणं वा-जाब-साइमं वा, वत्थं कोई गृहपति अपने आत्मगत भावों को प्रबाट किए बिना अशन या-जाव-पायपंचणं वा पाणाद वा-जान-सप्लाई वा. समारंभ -राषत्-स्वाद्य, वस्त्र - यावत् .. पादपोंछन. प्राणियों जाव-अभिहाँ आहट्ट तेति आबसह वा समुस्लिपणाति -यावत-सस्वो के समारम्भपूर्वक-यावत्-अपने घर से तं भिक्खू परिघासेतुं। लाकर देता है तथा उस भिक्षु के रहने के लिए उपाश्रय क" निर्माण या जीर्णोद्धार कराता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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