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________________ ५११] चरणानुयोग ओशिकाविहार पहण करने के विधिनिषेध प्रकीर्णक-दोष - उद्देशियाह आहार महणरस विहि हो६० सेभिक्खू या. भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठे समाने से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं या जान साइमं वा अस्सिपडियाए एवं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई * जाब- सत्ताई समारंभ समुद्दिस्त कोत पामिच्चं अच्छेज्जं अणि अद्धिं महद्दु चेतेति । त तहय्यगारं असणं वा जग्व साइमं वा, पुरिसंतरक या अपुरियंतरकडं था. बहिया णी वा अणीहर्ड या, अयं वा वणवा. परिमुथा अपरिमुवा. आसेवित वा अणासेवित वा अाजको पडियाला * एवं बहने सामिया एवं साम्यति बहवे माि समुद्दिस्स चलारि आलावा भाणिया । आ. सु. २, अ. १, उ. १, सु. ३३१ सेलू वा भिभूमी या गहान पिडा पाए अणुपविट्ठे समापे से कर्ज पुण जाणेज्जा असणं वा जाव साइमं वा यहवे समण' माहण अतिहि किषण वणीमए पणिय पणय समुद्दिस्स पाणाई जाय सत्ताइ समारंभ-जाव सेविका अगावियं वा जावो ****** औद्देशिकादि बाहार ग्रहण करने के विधिनिषेध १६०. गृहस्य के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि अशन यावत् स्वादिम दाता ने अपने लिये नहीं बनाया किन्तु एक साधर्मिक साधु के लिए प्राणी- यावत्सत्वों का समारम्भ करके साधु के निमित्त से आहार बनाया है, मोल लिया है, उधार लिया है। किसी से जबरन छीनकर लाया गया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना लाया हुआ है तथा अन्य स्थान से लाया हुआ है। इसी प्रकार का अशन -- यावत् स्वादिम, अन्य पुरुष को दिया हो, या नहीं दिया हो, बाहर निकाला हो जा न निकाला हो, स्वीकार किया हो, या न किया हो, खाया हो, या न खाया हो, आसेवन किया हो, या न किया हो, उसे मप्राक जानकर - यावत् ग्रहण न करे । इसी प्रकार अनेक साधर्मिक साधु, एक साधक साव और अनेक साधर्मिक साध्वियों के लिए इस प्रकार कुल चार आलापक का कथन कर लेना चाहिये । वह यामिभुवी बृहस्य के घर में आहार के लिए प्रवेश करने पर यह जाने कि यह अशन यावत् - स्वाद्य बहुत से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, दरिद्रियों भिखारियों को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य से प्राणी- पावत् सत्वों का समारम्भ करके बनाया हुआ है यावत् वह आसेवन किया गया हो, या न किया गया हो तो उस आहार को अत्रासुक समझकर - यावत्ग्रहण न करे । व विश्वं परिजापिया। " , 1 १ (क) उई किमहं पामि (ख) से जहाणामए अज्जी ! मए समणाणं निग्गंथाणं आधाकम्मिएर वा उद्देसिएइ वा, मीसज्जाए वा अज्टशेयरइ वा पूइए. -सूथ. सु. १, अ ६ गा. १४ जे अनि अभि ना. - ठाणं. अ. सु. ६६३ (ग) तो खलु कप जाया ! नमणणणं निम्याणं आहाकम्मिए ३ वा. उद्देसिए इ वा मिस्सजाए इ वा बाकी वा पावा, अच्छे वा मा कंवारने गिलाभते इया, बलिया भत्ते इ वा पाहुणभत्ते इ वा रोज्जश्वरपिंडे" इवा, रायपडे* इवा, मूलभोयणे वा, कंदभोयणे इवा, फलभोयणे वा दीपम इवा, हरियभोय' वा भुतए वा पाए । (भ) उद्दे सियं कीवर्ड नियाई अभिहाणि य । (ङ) दस. अ. ५, उ. १, गा ७० अज्झीयरए इ वा, ए वा दुइ ना बि. स. ६ ३ ३३, सु. ४३ --दस. अ. ३, गा. २ 1. *********** (च) दस. अ. ६, ४८-४९ (झ) दसा. व. २, सु. २ । (ज) दस. अ. १०, मर. १६ २ उपरोक्त दर्शाये गये दोषादि आवश्यक सूत्र में भी है, जो आवश्यक में भी लिए हैं। ३ दस. अ. ५, उ. १, गा. ६५-६६ सूत्र ६६० 1. (घ) दस. अ. ८ था. २३ ४ दस. अ. ५, उ. १, गा. ६६-६७ । - आ. अ. ४. सु. १८
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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