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________________ सत्र ६८९ विविध स्थानों में राजपिंड लेने के प्रायश्चित सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [५६५ ६. चैत्य, १६. मीण वा, १६. मुरुड देशोत्पल दासियों को, २०. सबरीण वा, २०. शबर देशोत्पन्न दानियों को, २१. पारसीण वा। २१. पारस देशोत्पन्न दासियों को । तं सेबमाणे आवज्जा चाउम्मासिय परिहारहाणं उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्याइयं । –नि उ. ६, सु. २०-२८ भत्ता है। विविह ठाणे रायपिउ गहणस्स पायच्छित्तसुत्ताई- विविध स्थानों में राजपिंड लेने के प्रायश्चित्त मूत्र६६६. जे भिक्खू रण्णो स्वत्तियाण-मुहियाण-मुजामिसित्ताणं समवा- ६८६. जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के मेले एसु वा पिजनियरेसु वा आदि में पितृ पिंड-निमित्तक भोजन में, यथा१. ईर-महेसु वा, २. संव-महेमु या, ३.ब्द-महेसु वा १. इन्द्र, ४. मुकुद-महेसुवा, ५. मूत-महेसु षा, ६ जक्ख-महेसु वा, ४. मुकन्द, ५. भूत, ६. यक्ष, ७. णाग-महेसु वा, ६. यूम-महेसु वा, ६. चेह-महेसु का, ७. नाग, ६. स्तूप, १०. रुक्ष-महेसु बा, ११. गिरि-महेसु वा. १२. बरि-महेसु वा १०. दृक्ष, ११. पर्वत, १२. कंदरा, १३. अगड-महेसु वा, १४. तडाग-महेसुवा, १५. दह-महेसु वा १३. कप, १४. तानाब, १६. पइ-महेसु वा, १७. सर-महेमु वा, १८, सागर-महेसु वा, १६. नदी, १७. सर, १८. सागर, १६. आगर-महेसुवा, अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु विश्वक्वेसु १६. आगर, महोत्सव में तथा, अन्य भी ऐसे अनेक प्रकार के महामहेतु असणं वा-आब-साइम वा पडिग्गाहेह, पडिग्गाहेंत महोत्सवों में से अमान-पावत्-स्वाध लेता है, लिवाता है, लेने वा साइज्जद। वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुखाभिसित्ताणं उत्तर- जो भिशु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा उत्तरशाला सालसि वा, उत्तर-गिर्हसि या, रीयमाणाणं असणं वा-जाव- में या उत्तरघर में हों वहाँ बने हुए अशन-यावत् स्वाद को साइमं वा पडिग्गाहेह, पविगाहेत वा साइज्जइ । लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू रणो-खत्तिपाण-मुहियाण-मुखाभिसित्तागं जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्दाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का १. हय-सालगयाण बा, २. गप-सासगवाण षा, १. अश्वशाला, २. गजशाला, ३. मंत-सालगयाण वा ४. गुजा-सालगयाण वा, ३. मंत्रणाशाला, ४. गुप्तशाला, ५. रहस्स-सालगयाण या, ६ मेहण-सालगयाण वा . रहस्यशाला, ६, मैथुनशाला, में गये हुए असणं या-जाव-साइमं वा पडिग्गाहे पडिग्गाहेंतं वा राजा का अशन - यावत्-स्वद्य लेता है, लिवाता है, लेने वाले साइज्जा। का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू रणो-खलियाण-मुहियाणं-मुशाभिसित्ताणं संनिहि जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के संग्रह स्थान संनिचयाओ खीरं बा-जाव-मच्छरियं वा अण्णयरं वा से दूध-यावत्-मिश्री या अन्य भी ऐसे कोई खाद्य पदार्थ को मोपणजाय पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जद। लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धारयं। उसे अनुपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. सु.१४ से १७ आता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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