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________________ ५९८] घरणानुयोग सावध संयुक्त आहार ग्रहण करने का निषेध मूत्र ६६१-६६३ तं च भिक्खू जाणेज्जा सहसम्मुतियाए परवागरणणं अण्णेसि (साधु के लिए किए गप) उस आरम्भ को बह भिक्षु अपनी वा सोच्चा बयं खस्तु गाहोवती मम अटाए असगं वा-जाव- सदबुद्धि से, ज्ञानी या परिजनादि से सुनबार यह जान जाए कि यह साइमं वा, वत्यं वा-जाव-पायपुंछणं वा, पाणाई वा-जाव- गृहपति मेरे लिए अगन थावत्-स्वाद्य, वस्त्र-यावत्सत्ताईवा, समारंभ-जान-अभिहर आहट्ट तेति, आवसहं पादपोंछन, प्राणियों--यावत् - सत्यों का समारम्भ करके देता वा समुस्सिणाति । है-यावत्-सामने लाकर देता है तथा उपाश्रय बनवाता है। तं च मिगल पडिलेहाए भागमेता आगवेन्जा अणासेवगाए। भिक्षु उसकी सम्यक् प्रकार से पर्यालोचना करके, आगम में कथित -आ. सु. १, ७, ८, उ. २, सु. २०४-२०५ आज्ञा को ध्यान में रखकर गृहस्थ से कहे कि "ये सब पदार्थ मेरे लिए सेवन करने योग्य नहीं हैं।" सावज्ज-संजुत्त-आहार-गहणस्स णिसेहो सावध संयुक्त आहार ग्रहण करने का निषेध-- ६६२. मं पि य उविद्व-ठविय-रचियाण-पज्जवजातं, पकिम्म-पाउ- ६६२. इसके अतिरिक्त जो आहार साधु के निमित्त बनाया हो, करणं पामिक्चं, मीसकलायं, कोयका- पाच, दाण?- अलग रखा हो, पुन: अग्नि से संस्कारित किया हो, खाद्य पदार्थों पुन्नट-पगडं, समण-वणिमगट्टयाए वा कयं, पन्छाकम्म', को संयुक्त किया हो, साफ किया हो, पीसना आदि किया हो, पुरेकम्म, नितिकम्म, भक्खियं, अतिरित्तं मोहर व सयागा- मार्ग में बिखेरते हुए लाया हो, दीपक जलाया हो, उधार लावा हमाहवं, मट्टिउवलितं, अच्छेनं चेत्र अणिसिटुंजं तं हो, गृहस्थ और साधु के उद्देश्य से बनाया हो, सरीदा गया हो, तिहीसु जन्नेसु उसयेसु य अंतो वा बहि वा होज्ज समणट्टयाए समय परिवर्तन कर बनाया हो, जो दान के लिए या पुण्य के ठवियं, हिंसा-सावजसंपउत्तं न कप्पति संपिय परिघेत्तुं। लिए बनाया गया हो, श्रमणों अथवा भिखारियों को देने के लिए ...ह. भु. .. यार किया' गवाहो, जो पश्चात्कर्म अथवा पुरःकर्म दोष से दुषित हो, जो नित्यकर्म दुषित हो, (निमंत्रण पूर्बक सदा एक स्थान से लिया गया हो) जो जल से गीले हाव आदि से दिया गया हो, मर्यादा से अधिक हो, पूर्व पश्चात् संस्तव दोष युक्त हो, स्वयं (साधु को ग्रहण करना पड़ता हो, संमुख लाया गया हो, मिट्टी आदि से बन्द किये बर्तन का मुख खोलकर दिया हो, छीन कर दिया गया हो, स्वामी की आज्ञा बिना दिया हो अथवा जो आहार विशिष्ट तिथियों यज्ञों और महोत्सवों के लिए बना हो, घर के भीतर या बाहर साधुओं को देने की भावना से या इन्तजार के लिए रखा हो, जो हिंसा रूप सावध कर्म से युक्त हो, ऐसा भी बाहार साधु को लेना नहीं कल्पता है। जे मियागं ममायति, कोयमुसियाहा । जो साधु-साध्वी नित्य आदरपूर्वक निमंत्रित कर दिया जाने वहं ते समणुजाणंति, हड वुत्तं महेसिणा ॥ बाला, साधु के निमित्त खरीदा हुआ, साधु के निमित्त बनाया -दस.ब. ६, गा. ४८ हुआ, निर्ग्रन्य के निमित्त दूर से मन्मुख लाया हुअ आहार ग्रहण करते हैं, वे प्राणियों के वध का अनुमोदन करते हैं ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है . आहारासत्ति णिसेहो आहार की आसक्ति करने का निषेध - ९६३. न य भोपणम्मि गिटी, चरे उंछ अपंपिरो। २६३. भिक्षु भोजन में गुद्ध न होता हुआ व ज्यादा न बोलता हुआ अफासुयं न मुंशेजा, कीयमुसियाहट। अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ले तथा क्रौत, औद्द शिक और -उस. अ.८, गा. २३ अभिहृत आदि दोष युक्त अकल्पनीय आहार न खाए। **.." | दिज्जमाणं न इच्छेज्जा, पच्छाकम्म जहिं भवे ॥ --स.अ. ५, उ.१.गा. ५० (ख) दसा. ६. २, सु. २।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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