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________________ सूत्र ६६४-६६६ संग्रह करने का निषेध चरित्रापार : एषणा समिति [५६६ सनिस्किरण-णिसेही संग्रह करने का निषेध-. २६४. सन्निहि छ न कुवेज्जा, अणुमायं पि संजए। ६६४. संयमी अणुमात्र भी सन्निधि संग्रह न करे। वह सदैव मुधामुहाजीवी असंबडे, हवेज्ज जगनिस्सिए । जीवी = निस्पृह भाव से जीवन निर्वाह करने वाला रहे आहारादि -दरा. . ८, गा. २४ में बलिप्त रहे तथा सब जीने की रक्षा करने वाला होवे । संखडी बज्जणं आहारगहण-विहाणं संखडी निषेध और शुद्ध आहार का विधान९९५. आइण्ण ओमाण विवज्जणा य, उस्सन्नविट्ठाहड मसाणे। ६६५. "भाकीर्ण और अवमान" नामक भोज का विवर्जन और संसहकप्पेण चरेज्ज सिक्खू, तज्जायसंसह जई एज्जा। समीप के दृष्ट स्थान से लाए हुए मक्त-पान के ग्रहण का विधान -दस. पू. २, गा. ६ है । दाता जो वस्तु दे रहा है उसी से संसृष्ट हाथ और पात्र से यति भिक्षु लेने का यल करे । दोसमुक्क आहार गहण तप्परिणामं च -- दोष रहित आहार का ग्रहण और उसका परिणाम--- ६६६. से भिक्खू जं पुण जाणेज्जा-असणं वा-जान-साइमं अस्सिपनि- ६६६. यदि भिक्षु रह जाने कि अशन-यावत् - स्वादिम अमुक याए एगंसाहम्मियं समुट्ठिस्स, पाणा, भूयाई, जीवार, श्रावक ने किसी एक निष्परिणही साधर्मिक साधु लो दान देने के मत्ताई, समारंभ, समुहिस्स फोतं, पामिच्चं, अच्छे जज, अणि- उद्देश्य से प्राणों, भूतों, जीनों और सत्वों का आरम्भ करके सट्ट, अभिहडं आहट्ट उद्देसियचेतिय, सिया, तं णो सयं आहार बनाया है. अयमा खरीदा है, किसी से उधार लिया है, भुंजइ, गो अन्नेणं मुंजावेति, अन्न पि मुंजतं गं समजाणा, बलात् छीन कर लिया है. उसके स्वामी से पूछे बिना ही से लिया इति से महता आवाणातो उवसते उद्विते पजिविरते से। है, अथवा साधु के सम्मुरू लाया हुआ है तो ऐसा सदोष आहार - मूप. सु. २. अ. १, सु. ६८७ न स्वयं खाये कदाचित भूल से ऐसा सदोष आहार ले लिया हो तो दूसरे साधुओं को भी यह आहार न खिलाए और न ऐसा सदोष आहार सेवन करने वाले को अच्छा सम्झे यह महान कमों के उन्धन से दूर रहता है, वह शुद्ध संयम पालन में उद्यत और पाप कर्मों से विरत रहता है। प०- फासुएसणिज्जणे भंते ! भुंजमाणे समणे निग्गथे कि प्र०-हे भदन्त ! प्रासुक एषणीय आहार का सेवन करने बंधह ? कि पकरेति ? कि चिणाति ? किं उबच्चि- बाला श्रमण निग्रन्थ क्या करता है? क्या बांधता है ? क्या चय णाति? करता है? क्या उपाय करता है? ज०-गोयमा ! फासएसणिज्ज पं भंजमाणे समणे पिग्ग उ०—गौतम ! प्रासुक एवं एषणीय आहार करने वाला आउयवज्जाओ सत्त कम्मपण्डोओ घणियबंधणबज्ञाओ श्रमण-निर्ग्रन्थ आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म की कृतियों सिदिलबंधणबद्धाओ परेड को हुल बंधन बाली से शिथिल बंधन वाली करता है। दोहकाल द्वितीयाओ हस्सकाल द्वितीयाओ पकरेह, दीर्घकाल स्थिति वाली से ह्रस्वकाल की स्थिति वाली करता है, तिवाणभागाओ मंदाणुभागाओ पकरेड, तीवरस वाली से मंद रस वाली करता है. बहुपएसगाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ, बहुप्रदेश वाली से अल्पप्रदेश वाली करता है, आउयं च णं फम्म सिय बंधइ, सिय नो बंधा, आयु कर्म को कदाचित् बांधता है. कदाचित् नहीं बांधता है, असायावेयणिज्जं च ण फम्म नो मुज्जो, मुज्जो अस तावेदनीय कर्म को बार-बार नहीं बांधता है, उपचिणाति, अणाइयं च णं अणवदग्गं दोहमद शरतं संसार- ___ अनादि-अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चातुर्गतिक संसार रूप अरष्य कतारं बौतीवयति । को पार करता है। से केणढेणं ते एवं बुच्चह-- प्र.- हे भदन्त ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैफासुएसणिज्ज ण मुंजमाणे समणे निम्ग आजय- प्रासुक-एषणीय आहार का सेवन करने वाला श्रमण निर्ग्रन्य वग्जाओ सप्तकम्म-पयडीओ घणियबंधणबद्धाओ आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की प्रकृतियों को दृढ़ बंधन सिढिलबंधणयखाओ पकरे-जाव-चाउरंतसंसारकतारं वाली से शिथिल बंधन वाली करता है-यावत्-संसार रूप वीतीवति? अरण्य को पार करता है। HODA
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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