SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 632
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६००] वरणानुयोग निर्दोष आहार गवेषक की और वैने वाले की सुगति ६६-१००० उ.-गोयमा | फासुएसणिज्ज मुंजमाणे समणे निम्गं ये ज० --गौतम ! प्रासुक एषणीय आहार को सेवन करने आयाए धम्म नाहकम्मति, आयाए धम्म अणति- बाला श्रमण नियन्ध आत्मधर्म का अतिकमण नहीं करता है, कम्ममाणे पुढविकायं अवकखति-जात्र-तसकार्य अव- आत्मधर्म या अतिक्रमण न करता हुआ बह श्रमण नियन्ध पुरवीकंसति, मे सि पि व जीवाणं सरौराई आधारेति वाय के जीवों की चिन्ता करता है-यावत्-त्रसकाय के जीवों की ते वि जीवे अवखति । चिन्ता करता है, जिन जीवों के शरीर का उपभोग करता है, उनका भी जीवन चाहता है। से तेणोण गोयमा ! एवं वुच्चद बन कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है"कासुएसणिज्ज गं मुंजमाणे समणे निग्गंथे आउय- "प्रामुक एवं एषणीय आहार का सेवन करने वाला श्रमण वज्जाओ सत्तकम्मपयडीओ-धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ निर्ग्रन्थ आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म की प्रकृतियों को -जाव-चाउरत संसारकतारं वीतीवयति ।" बन्धन वाली से शिथिल बन्धन वानी करता है-यावत–त्रि. सु, १, उ. ६, सु. २७ लातुर्गतिक रूप संगार अरण्य को पार करता है।" णिद्दोष आहार गवसमस्स दायगस्स य सुग्गई निर्दोष आहार गवेषक को और देने वाले की सुगति१९७, दुल्लहा उ महादाई, मुहाजीयो विवुल्लहा । ६६७. दुधादान्यो दुर्लभ है और मुधाजीबी भी दुर्लभ है। मुहादाई मुहाजीवी,' दो वि गच्छति सोग्गई ।। मुधाबायी और मुधाजीवी दोनों सुगति को प्राप्त होते है। -दस. अ. ५, उ.., मा. १३१ परिभोगषणा आहार करणस्स उद्देस आहार करने का उद्देश्य१९८. विविच्च कम्मुणो हेडं, कालखी परिव्यए । ६१८. कञ्बन्ध के हेतुओं को दूर करके मनयज्ञ होकर विचारे । मायं पिंडस्स पाणस्म कार्ड लडूण भक्खाए। संयमी जीवन के लिए गृहस्थ के घर में सहन निष्पन्न आहार -उत्त. अ. ६, गा, १४ पानी की जितनी मात्रा आवश्यक हो उतनी प्राप्त करके सेवन करे। आहार परिभोगणवाए ठाण णिद्देसो आहार करने के स्थान का निर्देश EEC. अस्पपागंऽपबीयंमि, परिच्छन्न म्मि संबडे। EE.. संयमी मुनि भाणी और बीज रहित, ऊपर से ढके हुए समयं संजए भुंजे, जयं अपरिसारियं ॥ और चारों तरफ भित्नि आदि से घिरे हुए स्थान में अपने सह- उत्त. अ. १, गा. ३५ धर्मी मुनियों के साथ भूमि पर न राता हुआ यतनापूर्वक आहार करे। गोयरग्ग-पविट्ठ-भिक्खुस्स-आहार करण विहि गोचरी में प्रविष्ट भिक्षु के आहार करने की विधि१०००. सिया य गोयरम्गगओ, इच्छेज्जा परिमोत्तुर्य । १०००. गोचरी के लिए गया हुआ मेधावी मुनि कदाचित आहार कोटुगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुर्य ।। करना चहे तो प्रासुक गृह या दिवाल के पास प्रतिलेखन कर अणुमवेत्तु मेहावी, परिच्छन्नम्मि संखुड़े। उसके स्वामी की अनुज्ञा लेकर, छाये हुए एब संवृत स्थान में हत्थगं संपजिसा तत्व भुजेज्ज संजए॥ बैठे और हाथ का प्रमार्जन करके उपयोग पूर्वक आहार करे। १ निस्वार्थ भाव से देने वाला मुहादाई कहा जाता है। निस्पृह भाव से लेने वाला मुहाजीवी कहा जाता है। २ "हत्यगं संपमज्जित्ता" का प्रसंगसंगत अहै -हाथ का प्रमार्जन करके आहार करे। आहार हाथ से किया जाता है इसलिए हाथ का प्रमार्जन करना उचित होने के साथ-साथ आमनसम्मत भी है । क्योंकि प्रश्नव्याकरण प्रथम संबद्धार गौथी भावना (शेष दिप्पण अगले पृष्ठ पर
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy