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________________ सूत्र १६६-१७२ संकेत वचम से घर ग्रहण का निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६७१ विचिताणि वा, अण्णतराणि वा, तह पगाराणि आईणपाउ- काओं से पशित, व्याघ्रचर्म, चीते का चम, आभरणों से मण्डित, रणाणि पत्याणि लामे संते गो पहिगाहेज्जा। आभरणों से चित्रित वे तथा अन्य इसी प्रकार के चर्म निष्पन्न -- आ. सु.२. अ. ५. उ. १, सु. ५५८ प्रावरण = वस्त्र प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे । संगार क्यणेण कालाणतर बत्य गवण णिसेहो -- संकेत वचन से वस्त्र ग्रहण का निषध१७०. सिया णं एयाए एसणाए एसमार्ण पासित्ता परे बदेम्जा- १७०. उक्त वस्त्र एषणाओं से बस्त्र की गवेषणा करने वाले साधु को कोई गृहस्थ कहे कि-- "आउसंतो समणा ! एज्जाहि तुम मासेग वा बसराग "आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस समय जाओ, एक मास तथा वा, पंचरातेण वा. सुतेवा, सुतसरे का तो ते वयं आजसो। दस या पांच रात के बाद अयबा कल या परसों आना, जप हम अण्णतरं वस्यं दासामो।" तुम्हे किसी एक प्रकार का वस्त्र देंगे।" एतप्पगार णिग्धोसं सोचा हिस्सम्म से पुख्खामेव वालो- इस प्रकार का कथन सुनकर समझकर वह उसे पहले ही एजजा। कह दे - "आउसो 1 ति वा, भगिणी ! ति वा पो खलु मे कप्पति "आयुष्मन् गृहस्। अथवा बहन ! भुटो इस प्रकार के एतप्पगारे संगार वयणे पडिसुणसए अभिकं खसि मे दार्ज अवधिसूत्रक वचन साकार करना नहीं कल्पता है यदि मुत्रे वस्त्र इवाणिमेव बलया हि" देना चाहते हो तो अभी दे दो।" से वं वदंतं परो वदेज्जा . . राा के इस प्रकार कहने पर भी यदि गृहरा यों कहे कि -- "आउसंतो समणा ! अणु गच्छाहि. तो ते वयं अण्णतरं वत्थं "आयुष्मन् श्रमण ! अभी तुम जाओ । थोड़ी देर बाद आना, वासामो।" से पुवामेव मालोएग्जा हम तुम्हें कोई वस्त्र दे देंगे।" ऐसा बाहने पर वह पहले ही उरो कहे ... "आजसो ! ति था, भइणी । ति वा, णो खलु मे कप्पति "आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा बहन ! मेरे लिए, इस प्रकार एथप्पगारे संगारवयणे पजिसुणे लए, अभिकखसि मे दाउं के अवधि सूचक वचन स्वीकार करना नहीं करपता है, यदि इथाणिमेव दलयाहि ।" मुझे देना चाहते हो तो अभी दे दो।" -आ. सु. २. अ. ५, उ. १. नु ५.६१-५६२ अफासुय बस्थ गहण णिसेहो-- अप्रासुक बस्त्र ग्रहण करने का निषेध१७१. से सेवं ववंत परो णेता वदेमा--- १७१. साधु के इस कार बहने पर भी गृहस्थ घर के किसी सदस्य (बहन आदि) को (बुला कर) वो लहे कि"आउसो ! ति चा, भमिणी । ति वा, आहर एवं वस्त्रं "आयुष्मन् भाई! या बहन ! यह वस्त्र लाओ हम उसे समणस्स वासामो, अबियाई बयं पन्छा वि अपणो सबढाए धमण को देंगे । हम तो अपने निजी प्रयोजन के लिए बाद में भी पाणाई-जात्र-सत्ताई समारम-जाव-सामो।" एतप्पगारं प्राणी-यावत्- गल्वों का नमाराम करके और उद्देश्य करके निग्घोस सोच्चा निसम्म तहप्पणारं वत्य अफासुब-जान-गो यावत् -अन्य बस्त्र बनवा लेंगे।' इस प्रकार का कान पड़िगाहेज्जा। -आ. भु.२, म. उ. १.. ५६३ मुनकर समझकर उस प्रकार के बस्व को अासुक जानकर -यावत-ग्रहाम करे । परिकम्मकय वत्थ गहण-णिसेहो - परिकर्मकृत वस्त्र ग्रहण का निषेध-- १७२. सिया णं परो गेत्ता वदेज्जा -- १७२. गृहस्वागी घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि"आउसो । ति वा. भरणी! ति बा, आहर एवं वत्थं, "आयुष्मन् भाई ! जयबा बहन ! यह वस्त्र लाओ हम उसे सिणाणेण षा, कपकेण बा, लोण वा वपणेण घा, चुपणेण स्नान (सुगन्धित द्रव्य समुदाय) से, कल्क से, लोध से, वर्ण से, वा, पउमेण वा, आपंसित्ता या पथसित्ता वा समणस्स चूर्ण से या पद्म से एक बार या बार बार घिसकर श्रमण को बासामो।" एतप्पणारं निघोसं सोन्या निसम्म से पुरवामेव आलो. इस प्रकार का नया सुनकर समझकर वह पहले से हो उसे
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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