________________
६७२]
चरणानुयोग
अमग के निमित्त प्रक्षालित वस्त्र के ग्रहण का निषेध
सूत्र १७२-१७५
"आउसो ! ति बा, भइणी ! तिवा, मा एतं सुमं यत्थं "आयुष्मन गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन ! तुम वस्त्र को सिणाणण वा-जाव-पउमेग वा आधरूह या पधंसाहिवा, स्नान (सुगन्धित दव्य समुदाय) से-यावत्-पदमादि सुगन्धित अभिकखसि मे दातु एमेव बलयाहि ।
द्रव्यों से घर्षण वा प्रघर्षण मत करो। यदि मुझं देना चाहते हो
तो ऐसा ही दे दो।" से सेवं बवंतस्स परो सिणाणेण वा-जाद-पउमेण वा साधु के द्वार इस प्रकार कहने पर भी यह गृहस्थ स्नान आवंसित्ता वा पसित्ता वा वलएक्जा, तहप्पगारं वत्थं सुगन्धित द्रव्य समुदाय) से-यावत् पदमादि सुगन्धित द्रव्यो अफासुयं-जाव-णो पबिगाहेज्जा।
से एक बार या बार बार घिसकर उस वस्त्र को देने लगे तो उस —आ. सु. २. अ. ५ उ. १. सु. ५६४ प्रकार के वस्त्र को अधासुक जागकर--यावत-ग्रहण न करे। समणद्देसिय पक्खालिय वत्यस्स गहण-णिसेहो
श्रमण के निमित्त प्रक्षालित वस्त्र के ग्रहण का निषेध१७३. से गं परी पेत्ता पम्मा ---
५७३. गृहपति घर के किसी सदस्य से कहे कि"आउसो ! ति वा भरणी! ति बा, आहर एवं पत्थं "आयुष्मन् भाई! या बहन ! उम वस्त्र को लाओ, हम सीओदगवियोण वा, उसिणोदवियांण वा उच्छोलेता उसे प्रामुक शीतल जल से या प्रामुक उष्ण जल से एक बार या वा, पधोवेत्ता वा समणस्स णं दामामो।"
बार-बार धोकर श्रमण को दे दंगे।" एयरपगारं निग्नोसं सोचा निसम्म से पुरुषामेव आलो- इस प्रकार सुनकर समझकर यह पहले ही उस कह दे । एमा--"आउसो ! ति वा भइणी ! ति वा मा एमं तुम "आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती वहम ! इस बस्त्र को बत्थं सीओदगषियडेण वा, उसिणोदावियरेण वा, उच्छोलेहि तुम प्रासुक फोतल जल या उष्ण जल से एक बार या बार-बार वा, पधोवेहि या अभिकसि मै दातुं एमेव दग्नमाहि।" मत धोओ । चदि मुझं देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो।" से सेवं बदंतस्स परो सीओदगविय डेण वा उसिणोक्गवियप इन प्रकार वहने पर भी यदि वह गहस्य उस वस्त्र को वा, उच्छोलेता वर, पधावेत्ता बा वलएज्जा, तहप्पगारं ठंडे पानी या गर्म पानी से एक बार या बार-बार धोकर साधु वत्थं अफासुयं जाद-गो पटिगाहेज्जा ।
न देने लगे तो उसे अमुक जानकर--- यावत् : ग्रहण न करे। —आ. सु२, अ. ५, ज. १, सु. ५६५ कंदाइ विसोहिय वत्थस्स गहण-णिसेहो --
कंदादि निकालकर दिये जाने वाले व-त्र के ग्रहण का
निषेध१७४. से णं परो णेसा बवेजा
१७४. गृहस्थ अपने घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि"आउसो ! ति या भहणो 1 ति वा, आहर एयं वत्वं कदाणि "आयुष्मन् भाई ! या बहन ' उस वस्त्र को लाओ हम वा-जाब-हरियाणी वा विसोहेला समणस्त गं बासामो।" उसमें से कन्द-यावत्-हरी (वनस्पति) को विशुद्ध कर (निकाल
कर) माधु को देंगे।" एतप्पगारं णियोस सोच्चा निसम्म से पुरखामेव आलो. इस प्रकार सुनकर समझकर वह पहले ही उसे कहे - एज्जा'आउसो ति वा, महणी ! तिवा, मा एताणि तुम कंदाणि __"आयुतान् गृहस्थ ! या बहन ! इस वस्त्र में से कन्द वा-जाब-हरियाणि वा विसोहेहि, णो खलु मे कप्पति -यावत्-हरी मत निकालो मेरे लिए इस प्रकार का बस्त्र एयप्पगारे वत्ये पडिगाहित्तए।"
ग्रहण करना कल्पता नहीं है।" से सेवं बवंतस्स परो कदाणि वा-जाव-हरियाणि वा बिसो- माधु के द्वारा इस प्रकार इन्कार करने पर भी वह गृहस्थ हेता दलएज्जा । तहप्पगार वरयं अफासुर्थ-जाव-ण पडिगा- कन्द-यावत्-हरी वस्तु को त्रिशुद्ध करके (निकाल करके) हेज्जा। -आ. सु. २, अ. ५. उ. १, सु. ५६६-५६७ वस्त्र देने लगे तो इस प्रकार के वात्र को अघासुक जानकर
- यावत्-ग्रहण न करे। धासावासे बत्थ-गहण-णिसेहो--
वर्षावास में वस्त्र ग्रहण का निषेध--- १७५. नो कप्पा निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा पदमसमोसरणुस- १७५. निर्ग्रन्थों और नियंत्रियों को प्रथम ममवसरण में वस्त्र
पत्ताई खेलाई पडिगाहेत्तए। - कप्प. उ. ३. सु. १६ ग्रहण करना नहीं कल्पता है।