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________________ सूत्र १७६-१७१ रात्रि में वस्त्रादि ग्रहण का विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६७३ - - - - - - - निर्ग्रन्थ-निर्गन्थिनी वस्त्रैषणा के विधि-निषेध–१ [५] राईए वत्याए गहण विहि-णिसेहो -- रात्रि में बस्त्रादि ग्रहण का विधि-निषेध -- १७६. नो कप्पइ निम्गंधाण वा, निग्गंथीण वा. १४६. निग्रंन्यों और निन्थियों को, राओ वा, वियाले वा, रात्रि में या विकाल में, धत्थं वा, पडिगहं वा, कम्बलं वा, पायपुंछणं वा पडिगा- बस्त्र, पात्र, वाम्बल और पादपोंछन लेना नहीं कल्पता है । हेलए, ननस्थ एगाए हरियाडियाए केवल एक "हताहृतका' को छोड़कर (पहले पुराई गयी, पीछे दागम लौटाई गई वस्द'हताहृतिका" कही जाती है ।) सा वि य परिभुत्ता वा, घोषा वा, रत्ता वा, घट्टा बा, ___ यादे वह परिभुक्त, धौत, रक्त, पृष्ट, मृष्ट या सम्प्रमित भी मट्टावा, संपधूमिया था। --कृप. उ. १, सु. ४५ किया गया हो (तो भी रात्रि में लेना कल्पता है ।) समणाइ उद्देसिय णिम्भिय वत्थस्स गहण बिहि-णिसेहो- श्रमणादि के उद्देश्य से निमित वस्त्र लेने के विधि-निषेध१७७. से भिक्खुवा, भिक्खूणी वा से उन पुरवत्थं जाणेज्जा --- ११७. भिक्षु या भिक्षुणी अस्त्र के सम्बन्ध में यह जाने कि अनेक बहवे सभण-माहण-अतिहि-फिविण वणीमए समृदिस्स-जाय- श्रवण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण-भिखारियों के उद्देश्य से बनाया है बाहटु चेएइ। -पावत्-अन्य स्थान से वहां लाया है। तं तहप्पगारं वयं अपुरिसंतरकडं अबहिया गोहां इस प्रकार का वस्त्र अन्य पुरुष को दिया हुआ नहीं हो, बाहर अणतट्रियं, अपरिमृतं अगासेवियं अफासुर्य-गात्र-णो पडिगा- निवाला नहीं हो. स्वीकृत किया हो, उपभुक्क न हो, आसेवित हेज्जा । न हो, उसको अप्रामुक जानकर- यावत् ग्रहण न करें। अह पुण एवं जाणेम्जा पुरिसंतरकर्ड बहिया णीहडं यदि यह जाने कि इस प्रकार का वस्त्र अन्य पुरुष को दिवा अद्वियं, परिमुत्तं आसेचिये फासुयं-जाव-पशिगाहेज्जा। हुआ है, बाहर निकाला है, दाता द्वारा स्वीकृत है, उपमुक्त है, -~आ. सु. २, न. २, उ. १, सु, ५५५ (य) आरोक्ति है. उसको प्रानुक समझाकर यावत् -ग्रहण करें। कोयाइ दोस जुत्त वत्थ गहण विहि-णिसेहो क्रीतादिदोष युक्त वस्त्र ग्रहण का विधि-निषेध - १७८. से भिक्खू वा, भिक्षुणी वा से ज्ज पुण वयं जाणेज्जा -- १७८. भिनु या भिक्षुणी बस्त्र के विषय में यह जाने कि--गृहस्थ अस्संजते भिक्खु पडियाए लोतं वा, धोपं वा, रत या, घट्ठ माशु के निमित्त उसे खरीदा है, धोया है. रंगा है, घिस कर वा, मटु चा, संमट्ठ चा, संपधूवितं वा, तहप्पगारं वत्यं माफ किया है. चिकना या मुलायम बनाया है, संस्कारित किया मपुरिसंतरक-जाव अगासेवितं अफासुयं-जाय-यो पविगा- है, धूप इमादि से सुवासित किया है ऐसा वह वस्त्र पुरुषान्तरकृत हैज्जा । -यावत्-किसी के द्वारा आसेवित नहीं हुआ है, ऐसे वस्त्र को अप्रासुक समझकर-यावत्-ग्रहण न करें। अह पुणेव जाणेज्जा पुरिसंतरक-जाव-पडिगाहेज्जा । यदि (साधु या साध्वी) यह जान जाए कि वह वस्त्र -आ. सु २, अ. ५, उ. १. सु. ५५६ पुरुषान्तरकृत है—यावत्-ग्रहण कर सकता है। कोयाइ दोस जुत्त वत्थ गहण पायच्छित्त सुत्ताइं- कीतादि दोषयुक्त वस्त्र ग्रहण करने के प्रायश्चित्त सूत्र-- १७६. से भिक्खू वत्वं कियेइ, किणावेइ, कोयं जाहट्ट वेज्जमाणं १७६, जो भिक्षु बस्त्र को खरीदता है, परीदनाता है, खरीदा पडिग्गाहेछ, पडिग्गाहेंत वा साइज्जइ । हुबा लाकर देते हुए को लेता है, लियाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू वत्थं पामिस्नेह, पामित्यावेज, पामिच्चाटु जो भिक्षु वस्त्र को उधार लेता है. उधार लिवाता है, उधार देजमाणं पडिग्गाहेछ, पडिग्गाहेत वा साइज्जद । लाकर देते हुए को लेता है, लेयाता है या लेने वाले का अनुमो दन करता है। जे मिक्खू वत्वं परिबट्टेड, परिपट्टावेइ, परियट्टियमाहट्ट जो भिक्षु बस्थ को परिवर्तन करता है. परिवर्तन करवाता है देन्जमाणं पडिग्गरोड, पडिम्गात वा साइज्जह ! या परिवर्तन करके लाये हुए वस्त्र को लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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