SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्र २६३-२९६ निर्वाण-मार्ग दर्शमाचार १६७ अणपुरणं महाघोरे, कासवेग पवेबियं । कायपगोपीय श्रमण भगवान् द्वारा प्रतिपादित उस अतिजमावाय इओ पुरावं, समुई व बबहारिणी ।। का मार्ग को है मशः बताता हूँ। मैं समुद्र मार्ग स विदेश में व्यापार करने वाले व्यापारी समुद्र को पार कर लेते हैं, वैसे ही इस मार्ग का आश्चम लेकर इससे पूर्व बहुत से जीवों ने संसार-सागर को पार किया है। अतरिसु सरतेगे, तरिस्संति अणागता। ___ वर्तमान में कई भव्य जीव पार करते हैं, एवं भविष्य में भी तं सोच्छा पडियखामि, जंतवो तं मुह मे ।। बहुत से जीव इसे पार करेंगे। उस भावमार्ग को मैंने तीर्थकर --सुय. सु. १, अ. ११, गा.१-६ महावीर से सुनकर (जैसा समझा है) उस रूप में मैं आप (जिज्ञासुओं) को कहूँगा । हे जिज्ञासुजीबों ! उस मार्ग (सम्बन्धी वर्णन को आप मुझसे सुने । निवाण-मम्ग निर्वाण-मार्ग२९४. हा अहे तिरिय छ, जे के तस-थायरा । २६४. ऊपर, नीचे और तिरछे (लोक में) जो कोई अस और सम्बत्व विरति कुज्जा, संति निख्वाणमाहियं । स्थावर जीव हैं, सर्वत्र उन सबकी हिमा से विरति (निवृत्ति) करना चाहिए। (इस प्रकार) जीम को शान्तिमय निर्वाण-मोक्ष (की प्राप्ति कही गई है। पन्न दोसे निराकिच्चा, ग विरुलेग्ज केणइ । ___ इन्द्रियविजेता साधक दोषों का निवारण करके किसी भी मणसा बसा चेव, कायसा चैव अंतसो ॥ प्राणी के साथ जीवनपर्यन्त मन से, वचन से या काया से वैर -सूय. सु. १, अ. ११, गा. ११-१२ विरोध न करे। अणुत्तर णाण-वंसणं अनुत्तरज्ञान दर्शन२६५. जमतोतं पड़प्पालं, आगामिस्सं च णापगो । २९५. जो पदार्थ (अतीत में) हो चुके हैं, जो पदार्थ वर्तमान में सव्वं मण्णति संताती, सणावरणतए विद्यमान हैं और जो पदार्थ भविष्य में होने वाले हैं, उन सबको दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा अन्त करने वाले जीवो के वाता रक्षक, धर्मनायक तीर्थकर जानते-देखते हैं। अंतए वितिगिहाए, से जाति अणेलिस। जिसने विचिकित्सा (संशय) का सर्वथा अन्त (नाश) कर अणेलिसस अक्खाया, ग से होति तहि तहि ॥ दिया है, वह (घातिचतुष्टय का क्षय करने के कारण) अतुल –'सूय. सु. १, अ. १५, गा. १-२ (अप्रतिम) ज्ञानवान् है। जो पुरुष सबसे बढ़कर वस्तुतस्य का प्रतिपादन करने वाला है, वह उन-उन (बौद्धादि दर्शनों) में नहीं होता। मेसि भावणा मैत्री भावना२९६. (क) हि तहि सुयक्खायं, से य सन्चे सुयाहिए । २९६. (क) (तीर्थकरदेव ने) उन-उन (आगमादि स्थानों) में जो सरा सच्चेण संपण्णे, मेति भूतेहि कल्पते ।। जीवादि पदार्थों का) अच्छी तरह से कथन किया है, वही सत्य है और वही सुभाषित (स्वाख्यात) है । अतः सदा सत्य से सम्पन्न होकर प्राणियों के साथ मैत्री भावना रखनी चाहिए। भूतेहि न विहज्जा , एस घम्मे बुसीमओ। प्राणियों के साथ वैर-विरोध न करें, यही तीर्थंकरों का या खुसीम जयं परिण्णाय, अस्सि जोवितभावणा ।। सुसंयमी का धर्म है । कुसंयमी साधु जगत् का स्वरूप सम्यकरूप से जानकर इस वीतराग-प्रतिपादित धर्म में जीषित भावना करे । मावणाजोगसुखप्पा , जसे णाषा व आहिया। भावनाओं के योग से जिसका अन्तरास्मा सुब हो गया है, नावा व तीरसंपत्ता, सम्पदुक्खा तिउदृति ॥ उसकी स्थिति जल में नौका के समान कही गई है। किनारे पर -सूप. सु. १, अ. १५, गा. १-५ पहुँची हुई नौका विश्राम करती है, वैसे ही भावना योग साधक भी संसार-समुद्र के तट पर पहुँचकर समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy