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________________ २२४] चरणानुयोग अहिंसा का स्वरूप सूत्र ३२३.३२४ सुपहरविदयस्थकापबुद्धीहि धोरमहबुद्धिणो य । श्रुतधरों के द्वारा तस्वार्थ को अवगत करने वाली वृद्धि के धारक महापुरुषों ने (अहिंसा भगवती का) सम्यक् प्रकार से आचरण किया है। जेते आसरेविस उगतेयकापा, णिच्छयववसायपजसकपईया, (इनके अतिरिक्त) आशीविष सर्प के सामान उन तेज से मिच्नं समायज्माणअणुबद्धधम्मसाणा, पंचमहन्वयचरित- सम्पन्न महापुरुषों ने, वस्तुतत्व का निश्चय और पुरुषार्थ-दोनों शता, समिया समिइमु समिपपावा छरिवहजयवच्छता में पूर्ण कार्य करने वाली बुद्धि से सम्पन्न महापुरुषों ने, निस्य णिच्चमप्पमता एएहिं अग्णेहि य ा सा अणुपालिपा स्वाध्याय और वित्तवृत्तिनिरोध रुप ध्यान करने वाले तथा भगवई। धर्म ध्यान में निरन्तर चित्त को लगाये रखने वाले पुरुषों ने, --पण सु. २, न. १. सु.४ पांच महारत स्वरूप चारित्र से युक्त तथा पाँच समितियों से सम्पत्र, पापों का शमन करने वाले, षट् जीवनिकायरूप जगत के वत्सल, निरन्तर अप्रमादी रहकर विचरण करने वाले महात्माओं ने तथा अन्य विवेकविभूषित सत्पुरुषों ने अहिंसा भगवती की आराधना की है। अपसमदिट्ठी आत्मसमदृष्टि३२४. तुम सि णाम तं चेकजं हंतवं ति माणसि. ३२४. तू वही है, जिसे तू हनन योग्य मानता है; तुम सि पाम तं व ज अज्जाबेतव्य ति मणसि, तू वही है, जिसे तू आजा में रखने योग्य मानता है। तुमं सि गाम तं चैव अं परितावेतवर्ष ति मति , तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है। तुर्म सि णाम तं वेव जं परिघेतवं विमणसि, तू वही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है। एवं तं व उहवेता ति मण्णसि । __ और तू वही है, जिसे तू मारने योग्य मानता है। अंजू चेयं पडिमुद्धजीवी। तम्हा प हंता, ण वि धातए। ज्ञानी पुरुष ऋजु-सरल होता है, यह प्रतियोध पाकर जीने वाला होता है इसके कारण वह स्वयं हनन नहीं करता और न दूसरों से हनन करवाता है। अगसंवेयणमपाणेणं जं हतवं णाभिपरथए। कृत कर्म के अनुरूप स्वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता -आ. सु. १, अ.५, उ. ५. सु. १७० है, इसलिए किसी का हनन करने की इच्छा मत करो। उपमेव णावकखंति, जे जणा धुवचारिणो। जो पुरुष मोक्ष की ओर गतिशील है वे इस (विपर्यासपूर्ण जाती-मरणं परिष्णाय, धरे संकमणे हे ॥ जीवन को जीने) की इच्छा नहीं करते (विपर्यासपूर्ण जीवन जीने बाले के) जन्म-मरण को जानकर वह मोक्ष के सेतु पर दृढ़ता. पूर्वक चले। पस्थि कासरस पागमो मृत्यु के लिए कोई भी क्षण अनवसर नहीं है (वह किसी भी -आ. सु. १, अ. २, उ. ३, सु. ७८ क्षण आ सकती है)। पमू एजस्स दुगुन्छणाए । आतंकदंसी अहियं लि पच्चा। साधनाशील पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, उसे अहित मानता है । अतः वायुकायिक जीवों की हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ होता है। से अनाथं जाणति से बहिया जागति, । जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य संसार को भी जानता जे बहिया जाणति से अमापं माणति । है। जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। एवं तृलमपणेसि । इस तुला (स्व-पर की तुलना) का अन्वेषण कर, चिन्तन कर। " इह सतिगला दक्यिा णायकति जीवित । इस (जिनशासन में) जो शान्ति प्राप्त (कषाय जिनके -आ. सु. १, अ. १, उ. ७, मु. ५६ उपशान्त हो गये हैं) और दयाई हृदय वाले (द्रविक) मुनि है, वे जीव-हिंसा करके जीना नहीं चाहते। . . .
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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