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________________ सूत्र ३२५-३२६ भगवाम ने छह जीवनिकाय प्ररूपित किये हैं मारित्राचार २२५ षड्जीवनिकाय का स्वरूप एवं हिंसा का निषेध भगवया छ जीवनिकाया परुविया भगवान ने छह जीवनिकाय प्ररूपित किये है३२५. सुयं मे माउस ! तेणं भगवा एषमक्खायं-इह खलु छगनी. ३२५. हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन भगवान् ने इस प्रकार वणिया नामजायणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं कहा -निग्रंथ-प्रवचन में निश्चय ही षड्जीवनिका नामक अध्यपवेड्या सुयक्स्थामा सुपन्नता। यन काश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित सु आख्यात और भुप्रजप्त है। सेयं मे बहिज्जि अजमायणं धम्मपनती। इस धर्म-प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेय है। प.कयरा बलु सा छज्जीवणिया नाममयणं समणेणं मग- प्र-वह षड्जीवनिका नामक अध्ययन कौन-सा है जो वया महावीरेप कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपनत्ता। काश्यप-गोत्री श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित, सु-आख्यात सेयं मे बहिज्जि अश्मयणं धम्मपन्नती। और सु-प्रशप्त है, जिस धर्म प्राप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेय है? उ.-इमा खलु सा छज्जीवणिया नामजमवणं समणं भग- उ०-वह षड्जीवनिका नामक अध्ययन जो काश्यप गोत्री वया महावोरेण कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपश्नत्तः। श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित, सु-आख्यात और सु-प्रशप्त सेयं मे अहिग्जि अमायण धम्मपन्नत्तो तं जहा- है, जिस धर्म-प्रशप्ति अध्ययन का पटन मेरे लिए श्रेय है-यह है जैसे१. पुचिकाइया, २. आउकाड्या, ३. तेवकाइया, (१) पृथ्वीकायिक, (२) अपकायिक, (३) तेजस्कायिक, ४. वाउकाइया, ५. वणस्सइकाइया, ६. तसकाइया। (४) वायुकायिक, (५) वनसतिकायिक और (६) सकायिक । -देस. अ. १, सु. १-३ छहं जीवणिकायाणं अणारंभपइण्णा छह जीवनिकायों का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३२६. हसि छाहं जीवनिकामा नेव सयं को समारंभेक्षा, ३२६. इन छह जीव-निकायों के प्रति स्वयं दण्ड-समारम्भ नहीं नेवन्नेहि समारंभावेजा, समारंभते वि अग्ने न करना चाहिए, दूसरों से दण्ड-समारम्भ नहीं कराना चाहिए और समगजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविरेणं मणेग यापाए दण्ड-समारम्भ करने वालों का अनुमोदन नहीं करना चाहिए। कारणं न करेमि न कारवेर्मि करतं मि अन्नं न समगु- यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से--मन से, वचन सामामि। से, काया से--करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तस्स मंते ! पहिस्कामि निवामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। भन्ते ! मैं अतीत में किए दण्ड समारम्भ से निवृत्त होता -दस, अ. ४, सु. १० हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और (कषाय-) आत्मा का ब्युस्सर्ग करता हूँ। उमेहे बहिया य लोक। इस (धर्म) से विमुख जो लोग हैं उनकी उपेक्षा कर ! से सम्बलोकसि जे केइ विष्णू। जो ऐसा कहता है, वह समस्त मनुष्य लोक में जो कोई विद्वान है, उनमें अग्रणी विश है। अधियि पास ! णिखितजा से कह सत्ता पक्षियं पति। तू अनुचिन्तन करके देख-जिन्होंने दण्ड (हिंसा) का त्याग किया है, वे ही श्रेष्ठ विद्वान होते हैं)। गरा मुतच्चा धम्भविद् ति अंजू, जो सत्वशील मनुष्य धर्म के सम्यक् विशेषज्ञ होते हैं, वे ही कर्म का क्षय करते हैं। ऐसे मनुष्य धर्मवेत्ता होते है अथवा शरीर के प्रति भी बनासक्त होते हैं।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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