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परणानुयोग
छह जीवनिकायों की हिंसा नहीं करनी चाहिए
सत्र ३२६-३२७
आरंभकं दुखमिति णच्या । एवमाह सम्मत्तदसिणो। इस दुःख को आरम्भ से उत्पन्न हुआ जानकर (समस्त हिंसा
का त्याग करना चाहिए) ऐसा (सर्वज्ञों ने) कहा है। से सम्वे पापारिया दुखस्स कुसला परिषणमुवाहरति इति ये सब प्रावादिक (सर्वज्ञ) होते हैं, वे दुःख (दुःख के कारण कम्मं परिणाय सम्बसो।
कर्मों को) जानने में कुशल होते हैं। इसलिए वे कमों को सब -आ. सु. १, ब. ४, उ. ३, सु. १४० प्रकार से जानकर उनको त्याग करने का उपदेश देते हैं । छ जीवणिकायाणं हिसानकायस्या
छह जीवनिकायों की हिंसा नहीं करनी चाहिए ... ३२७. इन्वेयं छज्जोवणिय, सम्मट्ठिी सपा जए। २२७. दुर्लभ थमण-भाव को प्राप्त कर सम्यक दृष्टि और सतत दुलह नमित्त सामपं. कम्मुणा न विराहेमासि ॥ सावधान श्रमण इस षड्जीवनिकाय को कर्मणा-मन, बचन और
-वस. अ. ४, गा. ५१ काया-से विराधना न करे । पुढवी-आऊ - अगणि-बाम-सण-क्या-सीयगा ।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा हरित, तृण, वृक्ष और बीज मंडया पोय - जरा - रस - संसेय - उस्मिया ॥ आदि वनस्पति एवं अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज तथा
उद्भिज्ज आदि त्रसकाय, ये सब षट्कायिक जीव हैं। एतेहि छहि कारहि, तं विजं परिमाणिया।
विद्वान् साधक इन छह कायों से इन्हें जीव जानकर मन, मनसा कायवक्के, भारंभी ग परिगही । वचन और काया से न इनका आरम्भ करे और न इनका परिग्रह
-सूय. सु. १,अ. ६. गा.-६ करे। पुडवीजीया पुढो सत्ता, आज्जीबा तहागणी ।
पृथ्वी जीव है, गृथ्वी के आश्रित भी पृथक् पृथक् जीव हैं, बाउजीवा पुढो सत्ता, तण बसपीयगा ॥ जल एवं अग्नि भी जीव है, वायुकाय के जीव भी पृयक्-पृथक् हैं
तथा हरित तृण, वृक्ष और बीज (के रूप में वनस्पतियाँ) भी
जीव हैं। अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय माहिया।
इनके अतिरिक्त (छटे) सकाय वाले जीव होते हैं। इस इत्ताव ताव जीवकाए, नावरे पिज्जती काए । प्रकार तीर्थंकरों ने जीप के छह निकाय (भद) बताये हैं। इतने
ही (संसारी) जीव के भेद हैं। इसके अतिरिक्त संसार में और
कोई जीव (का मुख्य प्रकार) नहीं होना । सव्वाहि अक्षुत्तीहि, मतिम परिलहिया।
धुद्धिमान पुरुष सभी अनुकूल (संगत) युक्तियों से इन जीवों सम्बे अंतबुक्खा य, अतो सम्वे न हिसया ॥ में जीवत्व सिद्ध करके भलीभांति जाने-देखे कि सभी प्राणियों को -सूय. सु. १, अ. ११, सु. ७-६ दुःख अप्रिय है (सभी सुख-लिप्सु है), अत: किसी भी प्राणी की
हिंसा न करे। पुडविणअगणिमा घ, तण - इक्स-सबीयगा।
पृथ्वी, उदक, अग्नि, वायु सीज-पर्यन्त तृण-वृक्ष और स तसा व पाणा जीव ति, इह पतं महसिणा ॥ प्राणी-ये जीव हैं-ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है। तेलि अच्छणजोएग, निच्चं हायस्बयं सिया।
भिक्ष को मन, बक्न और काया से उनके प्रति सदा अहिंसक मला काय परकेण, एवं मवह संजए॥ होना चाहिए । इस प्रकार अहिंसक रहने वाला संयत (संयमी)
-दस. अ.८, गा. २-३ होता है। एवं वि जाण जबावीयमाणा, जे भापारण रमंति,
तुम यह जानो। जो आचार (अहिंसा-आत्म-स्वभाव) में
रमण नहीं करते वे कर्मों से-आसक्ति की भावना से बंधे हुए हैं। आरम्भमाणा विनयं वयंति,
वे आरम्भ करते हुए भी स्वयं को संयमी बताते हैं । अथवा
दूसरों को संयम का उपदेश करते हैं । छोपनीया अपसोपवण्णा,
वे स्वच्छन्दचारी और विषयों में आसक्त होते हैं।