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सूत्र३२७-३२८
वीकाय का आरम्म न करने की प्रतिज्ञा
चारित्राचार
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आरम्भसता पकरेंति संग ।
वे (स्वच्छन्दचारी) आरम्भ में मासक्त रहते हुए पुनः पुनः
कर्म का संग-बन्धन करते हैं। से यमुझ सव्व समग्णागत-पराणालेणं अफरणिज्ज पाई कम्मं वह वसुमान (ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप धन से संयुक्त) सब तं जो अण्णेसि।
प्रकार के विषयों के सम्बन्ध में प्रज्ञापूर्वक विचार करता है, अन्तःकरण से पाप कर्म को अकरणीय (न करने योग्य) जानें, तथा
उस विषय में अन्वेषण (मन से चिन्तन) भी न करे । तं परिणाय मेहाबी व समं छज्जीव-निकाय-सस्थं समा- यह जान कर मेधादी मनुष्य स्वयं षट्-जीव-निकाय का समाभेज्जा ,
रम्भ न करे। गंवानेहिं छज्जीवणिकायसर्थ समारंभावेज्जा,
दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए, वऽपणे छज्जीवगिकायसत्थं समारंभंते समजाज्जा । उसका समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे। जस्सेते छज्जीवणिकायसत्य-समारम्भा परिणाग भवंति से जिसने षड्-जीवनिकाय-शस्त्र का प्रयोग भलीभांति समम हु मुणी परिणायकम्मे,
लिया है, त्याग दिया है, वही परिजातकर्मा मुनि कहलाता है। ति अमि। .. आ. सु. १, अ. १, उ.७, सु. ६२ -ऐसा मैं कहता हूँ। उद अहे य तिरिय विसासु,
साधु ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो भी त्रस और तसा यजेथावस जेय पाणा।
स्थावर प्राणी रहते हैं, उनकी हिंसा जिस प्रकार से न हो, उस सया मते तेसु परिश्वएज्जा,
प्रकार की यतना (यल) करे तथा संयम में पुरुषार्थ करे एवं उन मणप्परोस अविकंपमाणे॥ प्राणियों पर लेशमात्र भीष न करता हुआ संयम में निश्चल
-सूय. सु. १, अ. १४, गा. १४ रहे। से मेधावी जे अणुग्घायणस्स खेत्तपणे से य बंधप्पमोक्या वह मेधावी है, जो अनुपात-अहिंसा का समग्र स्वरूप जानता मम्सी ।
है, तथा जो कर्मों के बन्धन से मुक्त होने की अन्वेषणा करता है। कुसले पुग गो बझे जो मुक्के ।
कुशल पुरुष न बँधे हुए हैं और न मुक्त हैं। से आरम्भे, जंच पारंभे, अणारखंच ग आरम्मे । उन कुशल साधकों ने जिसका आचरण नहीं किया है उनके
द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे। छगं छणं परिण्णाय लोगसण्णं च सव्यसो।
अहिंसा और हिंसा के कारणों को जानकर उनका त्याग कर -बा. सु.१, अ.२, उ. ६, सु. १०४ दे। लोक-संज्ञा (लौकिक सुख) को भी सर्व प्रकार से जाने और
छोड़ दे। पुडविकाय अणारंपकरण पइण्णा--
पृथ्वीकाय का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३२८ पुढवी वित्तमंतमक्खाया अगजीया पुढोसत्ता अन्नत्य सस्थ ३२८. मास्त्र-परिगति से पूर्व पृथ्वी चितवती (सजीव) कही गई परिणएणं ।
है । वह अनेक जीवों और पृथक सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र
-देस. अ. ४, मु.४ अस्तित्व) वाली है। से भिक्ट वा भिमखुगी वा संजय-विरय-पडिहय-पचपवाय- संयत विरत-प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा भिक्षु अथवा पायकम्मे बिया वा राओ वा एगओवा परिसागओ पा सुसे भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते मा मागरमाणे या से पुदि वा पिति वा सिल वा लेखें या जागते-गृथ्वी, भित्ती (नदी पर्वत आदि की दरार), शिला, वा ससरक्खं वा कार्य ससरमख वा वत्थं हत्येण का पाएकवा देले, सचित्त-रज से संसृष्ट काप अथवा सचित्त रस से संसृष्ट कट्ठग वा किलिचेण श अंगुलियाए वा सलागाए वा सलाग- वस्त्र या हाथ, पांव, काष्ठ, खपच्चि, अंगुली, शलाका अथवा हत्येण बा, न आलिहेज्जा न विलिहेज्जा न घट्ट जना न शलाका-समूह से न आलेखन करे, न विलेखन करे, न भट्टन मिज्जा,
करे और न भेदन करे।