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प्रब ४१८-४२९
बत मनुमाससंबर का स्थान
चारित्राचार
(३०॥
बत्तमणुष्माय संवरस सरूवं
दस अनुज्ञात संवर का स्वरूप-- ४३. मायागं मरय विसं मायएग्न सामगि
४३८. "परिग्रह नरक है" यह देखकर एक तिनके को भी "बोछौ अप्पगो पाए" दिन मुंज भोय।।
अपना बनाकर न रखे (अथवा "अदत्त का बादान नरक है"-- -उस, ब. ६, गा.. यह देखकर बिना दिया हुआ एक तिनका भी न से) असंयम से
जुगुप्सा करने वाला मुनि अपने पात्र में गृहस्थ द्वारा प्रदत
भोजन करे। गंबू ! बत्तम पुग्णायसंबरो नाम हो तसिय सुम्पता।
सुन्दर व्रत बाले हे जम्बू ! तीसरा संबरद्वार रत्तानुमात
नामक है। महत्वयं गुणवयं परब-हरण-पडिविरा-बायुतं । अपरि- यह महावत है और गुणवत भी है । इस लोक और परलोक मियम मंतं-सहायगयमाहिन्छ - मन-यण-कलुस-आपाप- के सुधार का निमित्तभूत है । परब्रम्य के हरण करने में विरक्तिसुनिगहिय, सुसंजभिय-मन-हस्थ-पायनिमिय निर्ग. द्विक, युक्त, अपरिमित तया अनन्ततृष्णारूप और अनुगत (वस्तुओं को निहतं, निरास, निम्मय-विमुक्त, उत्तमनर-बसम-पवर- अपेक्षा) महेन्छा रूप को मन-वचन के द्वारा होने वाला पाप बलबम-सुविहितमपसंमतं परमसाधम्मपर।
रूपी ग्रहण (आदान) के भली प्रकार निग्रह-युक्त, अच्छी तरह से - सु. २, न. ३, सु. १ संयमित मन-हाथ-पैर आदि के संवरण-युक्त, (बाह्य तया भाभ्य
स्तर) अस्थि को तोड़ने वाला, निष्ठायुक्त (उत्कृष्ट), निस्क्त (तीर्थकरों द्वारा पूर्णता से कहा गया), मानव रहित, निर्भय, विमुक्त (लोभ के दोष से रहित) उत्तम, नरवृषभ द्वारा प्रधान बलवान् मनुष्यों और सुविहित (साधु) जनों से मान्य किया हमा
और परम साधुओं का धर्मानुष्ठान रूप यह (तीसरा) बट है। अविनादाविरमणमहम्वयाराहगस्स अकरणिज्ज किच्चार- अदत्तादान विरमण महावत आराधक के बकरणीय कृत्य४३६. अस्प 4 गामागार-नगर-निगम खेड-का-मस-योगमुहः ४३६. गांव - आगर - निगम-खेडकरबर-मण्डप-द्रोणमुख-सम्बाह
संवाह-पट्टणासपग- किचि बाब मणि-मुत्त-सिलप्पवाल- पट्टण-आश्रम आदि का कोई भी द्रव्य जैसे-मणि-मुक्ता कस-दुस-रवयवर-कणग-रयणमादि पडियं पम्हद विप्पट्टम (मोती), शिला-प्रबाल-कासी (धातु), वस्त्र-सोना-चाँदी-रत्न कति कस्सा कोडं वा, गेमिहर वा।
आदि कुछ भी क्यों न पड़ा हो, या किसी का खो गया हो, और वह पड़ा पा गया हो (और उसके मालिक को मिलता न हो) फिर उस के विषय में किसी से कहना या स्वयं उठा लेना, साधु
को नहीं कल्पता है। अहिरम-बमिकेग, समलेकंमणे - अपरिगहसपुरे हिरण्य-सुषणं से रहित-धन और पत्थर तथा कंचन को लोगम्मि बिरहिया
समान जानने वाला (ऐसी उपेक्षावृत्ति से) केवल अपरिग्रह और संवृत (इन्द्रियों के संवरयुक्त) भाव से, साधु को लोक में धूममा
चाहिये। पिप होगमाइ बजातं पलगतं खेसगतं रनमसरगत वा कुछ भी च्यादि पदार्थ खलिहान में हो या खेत में हो, किषि पुष्फ-फल-तपप्पवास-पच मूल-तम-कट्ट-सकरादि जंगल में हो, जैसे फूल-फल बालभंजरी (प्रवास) कन्द-मूल
- (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) (ब) प्रश्नव्याकरण में पांच भावनाएं इस प्रकार है-- १. विविक्तवासवसति,
२. अभीषण अवग्रह याचन, ३. शय्या समिति,
४, साधारण पिण्डमात्र लाभ, ५. विनय प्रयोग।
-प. मु. २, म. ३, सु.10-11 पाठ देखिए-परिशिष्ट में ।