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________________ ३०२] परचामुयोग तुतीय महामत और उसको परमावता सूत्र ४३७ ३. अहावरा तच्चा भावणा-जिग्गवे पं उगाहसि, उगाह- (३) अब तुतीय भावना का स्वरूप इस प्रकार है-निन्य यति एताब ताप उग्गहणसोमए सिवा । साधु को क्षेत्र और काल के (उतना-इतना इस प्रकार रो) प्रमाण पूर्वक अवग्रह की याचना करनी चाहिए । केवलो बुबा--निग्गंधे गं उग्गहसि जम्गहियंसि एसाव ताव केवनी भगवान् ने कहा है जो निग्रन्थ इतने क्षेत्र और मनोहणसीलो अविष्णं प्रोगिण्हेज्बा, निग्गंपे उगाहंसि इतने काल को मर्यादापूर्वक अवग्रह की अनुमा (याचना) ग्रहण अगहियसि एताब-ताब गहणसोलए सिम ति सच्चा नहीं करता वह अदस का ग्रहण करता है। अतः निर्गन्य साधु भावगा। क्षेत्र काल की मर्यादा खोलकर अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने वाला होता है, अन्यथा नहीं । यह तृतीय भावना है। ४. महादरा बस्था भाषणा-निग्गंधे ग जग्गहप्ति जग्गाह- (४) इसके अनन्तर धौमी पाबमा यह है-निम्रन्थ अवग्रह मंसि अभिका अभिक्स उगाहणसोलए सिया । को अनुज्ञा ग्रहण करने के पश्चात् बार-बार अवग्रह अनुज्ञा प्रणशील होना चाहिए। केवली मा-निधन बगाहसि उम्गहियसि अमिक्स क्योंकि केवली भगवान् ने कहा है जो निर्घन्य अवग्रह की अभिश्वर्ण मगोरगहणसीसे अरि मिहेन्ना, मिग्णये गं अनुशा ग्रहण कर लेने पर बार-बार अवग्रह की अनुज्ञा नहीं लेता, उगाहसि हिलि अभिस्वर्ण मणिपणे उगहमसीलए बह अदत्तादान दोष का भागी होता है। अतः निग्रंथ को एक सिम सिमस्या भाषणा। वार अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर भी पुनः-पुन अवपाहा नुजा ग्रहणशील होना चाहिए । यह चौधी भावना है। ५. महावरा पंचमा भावणा-गुबोयि मिसोगहनाई से (५) इसके पश्चात् पापी भावना इस प्रकार है-जो निग्गधे साहम्मिएसुमो ममणुवीय मित्तोरगहजाई। साधक साधर्मिकों से भी विचार करके मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ है, बिना विचारे परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं। केवली या-मणगुणोमि मितोग्गहजाई से निग्नये साहम्मि- केवली भगवान् ने कहा है-बिना विचार किये जो साघएममविणे मोगिणेषणा से अनुबीपि मितोमाहलाई से मिकों से परिमित अवग्रह की याचना करता है, उसे सामिकों निम्न साहम्मिएम को अगवीमि मितोग्यहमाईतिपंचमा का अदस ग्रहण करने का दोष लगता है। अत: डो साधक मारना। साथमिकों से भी विचारपूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है। वही निर्गन्थ कहलाता है। बिना विचारे सार्मिकों से मर्या दित अवग्रह याचक नहीं। इस प्रकार की पंचम भावना है। एताव सार (सच्चे) महम्बयं सम्मं काए फासिते पाणिते इस प्रकार पंच मावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत अदलातीरिए किहिते मट्टिते मागाए भाराहिले पापि भवति । दान विरमण तृतीय महावत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, उसका पालन करने, गृहीत महावत को भलीभांति पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा उसमें अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्यक् आराधन हो जाता है। तपय मंते ! महम्बयं अविचारागाओ बेरमगं । भगवन् ! यह अदत्तादान-विरमणरूप तृतीय महावत है। -आ. सु. २, म. १५, सु. ७५३-७८५ १ (क) समवायांग सूत्र में तृतीय महावत की पांच भावनाएं इस प्रकार है-- १. भवग्रहानुशापना, २. अवग्रह सीमापरिज्ञान, १. स्वयं ही अवह अनमहणता, ४. साधर्मिक अवग्रह अनुज्ञापनता । ५. साधारण भक्तपान अनुजाप्य परि जनता। -सम. २५, सु. ११५ (थेष टिप्पण बसले पृष्ठ पर)
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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